Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 125
________________ जैनविद्या 119 -- जो मुनि परम आनन्द के सरोवर में प्रवेश करके अमृत महारस का पान करते हैं वे जिनेन्द्र भगवान् तथा सद्गुरु के उपदेश का पालन करते हैं । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! ऐसे मुनि ही भगवान् तथा सद्गुरु का उपदेश पालन करते हैं ।। 26।। जो युद्ध में पृथ्वी को जीत कर रमणियों से रमण करते हैं वे चक्राधिप (चक्रवर्ती) नरेश होते हैं । इसी प्रकार ज्ञान के बल से कर्म-चक्र को जीतते हुए जो प्रात्मा का अनुभव करते हैं उनके शिवपुर निकट होता है । अरे प्रानन्द को प्राप्त करनेवाले ! उनके शिवपुर (मोक्ष) निकट होता है ॥27॥ सद्गुरु कहते हैं, शिष्य सुनते हैं - अपनी आत्मा का स्वभाव परमानन्द है । शुद्धभाव से चिन्मय-ज्योति-स्वरूप वह परमज्योति प्रकाशित होती है। अतः अपने भाव निर्मल कर । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! अपने भाव शुद्ध कर ।।28॥ चेतन के लिए ही यह उपदेश दिया जाता है कि इन्द्रिय तथा मन में क्षोभ उत्पन्न होने पर उन पर नियन्त्रण रखना चाहिये, अन्य प्रदेश में यह उपदेश नहीं सुना जाता है । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! जीव-लोक को छोड़ कर अन्य किसी देश में यह उपदेश नहीं सुना जाता है ।।29॥ जैसे बलिष्ठ हाथी के कुम्भस्थल पर सिंह प्रहार करता है वैसे ज्ञानी मिथ्यात्व गज को परास्त कर परम-समाधि में लीन होता है। परम-समाधि को ज्ञानी नहीं भूलते हैं। उस समय वे निराकार होकर रहते हैं । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! ज्ञानी परमसमाधि में निराकार होकर रहते हैं ।।30। ज्ञानी के पूर्व में बंधे हुए मल (कर्म) झड़ जाते हैं और नये बँधते नहीं हैं । अपना उपयोग आत्मा में लगाने से केवलज्ञान होता है । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! अपने स्वरूप में लीन रहने से केवलज्ञान (पूर्ण ज्ञान) होता है ।।31॥ देव दुंदुभि बजाते हैं, ब्रह्म, कृष्ण स्तुति करते हैं। इन्द्र, फणीन्द्र, चक्रवर्ती तथा तेतीस प्रकार के उरगनाथ समाधि में लीन योगी पर बलि-बलि जाते हैं । अरे प्रानन्द को प्राप्त करनेवाले ! समाधि में लीन योगी पर अन्य सब देवी-देवता न्यौछावर हो जाते हैं ।।32॥ सद्गुरु के वचन के प्रसाद से जो आत्मा का अनुभव करता है उसे केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। केवलज्ञान में तीन लोक के तीनों कालों में होनेवाले चर-अचर पदार्थ व सम्पूर्ण जग प्रत्यक्ष प्रतिबिम्बित होता है। फिर, वह सहज स्वभाव सतत् रहता है । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! सहज स्वभाव सदा काल रहता है ।।33।। ___ "सद्गुरु" के सन्तुष्ट (अपने स्वरूप में स्थिर) होने पर मुक्ति-रमा का वास प्राप्त होता है । जब तक हृदय में सांस है तब तक प्रतिदिन ऐसे गुरु का ध्यान करना चाहिये । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! जब तक श्वासोच्छ्वास है तब तक ऐसे गुरु का ध्यान करो ॥34॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152