Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 136
________________ 130 जैनविद्या से ग्रस्त छात्रों को शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति तथा विकलांग, वृद्ध व विपन्न विधवाओं के लिए आर्थिक सहायता की भी व्यवस्था करती है। एलोपैथिक डिस्पेंसरी के साथ आयुर्वेदिक औषधालय तो वर्षों से तीर्थस्थल पर सेवारत है ही, योग व प्राकृतिक चिकित्सालय की योजना भी क्रियान्वित की जा रही है। मंदिर और जैन पुरातत्व के स्थानों को सुरक्षित रखने तथा जैन वाङमय के प्रचार-प्रसार व अनुसंधान का कार्य भी इस समिति की गतिविधियों के अंग हैं। जैनविद्या संस्थान जैन तीर्थ पूजा-भक्ति के साथ-साथ जैन संस्कृति की रक्षा तथा उसके प्रचार-प्रसार के महान् केन्द्र रहे हैं। जब कालगत परिस्थितियों के कारण दिगम्बर साधुओं के विहार आदि में बाधाएँ आईं तब भट्टारक संस्था का प्रादुर्भाव हुआ । भट्टारकों ने विशेषतया जैन तीर्थों को संस्कृति के प्रसार का केन्द्र बनाया और सारे भारत में विहार कर अपनी विद्वत्ता तथा साधना के बल पर संस्कृति का संरक्षण एवं प्रचार-प्रसार किया। इसके लिए उन्होंने प्राचीन ग्रंथों की हजारों लाखों प्रतिलिपियाँ करवाईं, नवीन ग्रंथों का निर्माण किया और बड़े-बड़े ग्रंथागारों की स्थापना की। श्रीमहावीरजी तीर्थ के पास भी एक ग्रंथ भण्डार है। जो थोड़ा-बहुत जैन साहित्य विश्व के चिन्तकों और मनीषियों के सम्मुख अब तक रखा जा सका है उसे देखकर आज एक स्वर से यह स्वीकारा जाने लगा है कि विश्व को त्राण दिलाने के उपाय हैं - भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के सिद्धांत । आज विश्व को महावीर के सिद्धांतों की जितनी अधिक आवश्यकता है उतनी शायद अतीत में कभी नहीं रही। अतः हमारा कर्तव्य है कि युग की इस मांग को पूरा करें। ___ इसी दृष्टि से क्षेत्र की प्रबन्धकारिणी कमेटी ने आज से लगभग 37 वर्ष पूर्व प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् एवं साहित्यसेवी स्व. पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ की प्रेरणा एवं क्षेत्र के तत्कालीन मंत्री स्व. श्री रामचन्द्र खिन्दूका के अथक प्रयासों से आमेर शास्त्र भंडार को जयपुर स्थानान्तरित कर एक साहित्य शोध विभाग की स्थापना की थी। इस विभाग ने राजस्थान के अनेक मंदिरों के जैन शास्त्र भण्डारों में वर्षों से बंद ग्रंथों की पांच वृहदाकार सूचियाँ प्रकाशित की जिनसे प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी की हजारों अज्ञात जैन रचनाएं प्रकाश में आईं। साहित्य शोध विभाग द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ भी प्रकाशित किये गये। डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल एवं पं. अनूपचन्द न्यायतीर्थ का प्रकाशन कार्य में पर्याप्त योगदान रहा। __इस कार्य को अधिक व्यापक रूप प्रदान करने की दृष्टि से क्षेत्र की प्रबंधकारिणी कमेटी ने साहित्य शोध विभाग को वृहदाकार देकर क्षेत्र पर ही जैनविद्या संस्थान (Institute of Jainology) की स्थापना की है । इस संस्थान के उद्देश्य हैं - 1. प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, तमिल, कन्नड़, राजस्थानी, हिन्दी आदि भाषाओं के .. अप्रकाशित साहित्य को आधुनिक शैली में सम्पादित कर प्रकाशित करना।

Loading...

Page Navigation
1 ... 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152