Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जनविद्या परमाणंद 126 - सरोवरह,127 जे मुणि करई पवेसु128 । अमिय महारसु जइ पिबइ,129 गुरु-सामिहि130 उपदेसु ॥
पाणंदा रे ! गुरु सामिहि उपदेसु ॥26॥ महि साहिं रमरिणहि रमहि, जे चक्काहिवहोइ । पाणवलेण जिणेव मुणि, सिवपुरि णियडा होइ131 ॥
पाणंदा रे ! सिवपुरि रिणयंडा होइ ॥27॥
सिक्ख 132 सुणइ133 सदगुरु भणइ,134 परमाणंद135 सहाउ । परमबोति136 तसु उल्हसइ, कोजइ णिम्मलु137 भाउ ॥
पाणंदा रे! कोजइ पिम्मलु भाउ138 ॥28॥ इंदिय-मणु वि छोहियउ,139 चेयणु140 कय141 उपदेसु142 । उदय करतउ वारियड,143 सुरणयउ जाणु ण देसु144 ॥
पाणंदा रे ! सुरणयउ जाणु ण देसु145 129॥
गयकुभत्यलि146 जेम दिढ, केसरि करइ147 पहा । परमसमाहि148 ण भुल्लहि, रहियउ हुइ149 णिरकार ॥
- पाणंदा रे ! रहियउ हुइ णिरकार 150 30॥
पुष्वकिय151 मल - णिज्जुरइ, गया रण होणहं देइ। अप्पा पुणु मणु रंगियउ, केवलणाणु हवेइ152 ॥
पाणंदा रे ! केवलणाण हवेइ ॥31॥ देव बजावहिं दुंदुहि, थुइ जु बंभु-मुरारि । इंदु-फरिणदु वि चक्कवइ, तेतिसु उरगहि वारु (रि)153 ॥
पाणंदा रे ! तेतिसु उरगहि वारु ॥32॥
केवलणाणु वि . उपज्जइ, सदगुरु-वचन-पसाउ । जगु सचराचर सो मुणइ, रहइ जु सहजसुभाउ154 ॥
प्रारदा रे! रहइ जु सहजसुभाउ ॥3311
सदगुरु 155 तूठा पावयइ,156 मुगति1 5 7-तिया-घर-वासु । सो गुरु णितु-णितु झाइया, जब लगि हिये उसासु158 ॥
पाणंदा रे ! जग लगि हिये उसासु ॥34॥

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