Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 133
________________ जनविद्या 127 148. परमसमाहि 149. दहियउ दुइ रिणक्खारु 150. (क) प्रति में यह छंद 27 एवं 28 के मध्य है जो टिप्पण 132 पर उद्धृत किया गया है। 151. (क) प्रति में 30 और 31 के मध्य निम्न दोहा है . समरस भाव रंगिए, अंपा देखइ सोइ । अंपा जाणइ परु हणइ, करै निरारंबु वासु ॥ .. 152. (क) पूर्व किय कर्म निर्जरहि, नहु नहु उपजन देइ । । प्रापा नामु न रंगिए, • केवलु न्यानु हवेइ ॥ (ख) केवलणाण हवेइ (क) देउ वजावहि दुदुहि, थुणइ जु बंभ मुरारी। . . इंदु फरिणदु वि चकवइ, तेतिसु उरगहि वारु ॥ .. (ख) देव वजावहि दुदहि, थुणहिं जि वंभु मुरारि । इंद फरिणद वि चक्कवइ, तिणि वि लागइ पायाई ॥33।। 154. (क) केवलन्यानु वि उपजइ, सदगुर के उपदेस । जगु संजकु चरु सु मिने, रहए सहज सुभाई ।। (ख) केवलणाण वि उपज्जई, सदगुरु वचन पसाउ। जग सु चराचर सो मुणो, रहइ जु सहजु सुभाई ॥ 155. (क) प्रति में यह छन्द यहाँ न होकर छंद 37 के बाद है । 156. (ख) तुठा पावयई . 157. (ख) मुगति 158. (ख) निरु तू झाइय, जब लगु हियडइ सासु ॥35॥ 159. (क) सिध सहु 160. (क) रयणिहिनतय 161. (क) दरसावइ अप्पु 162. (क) पावहि 163. (ख) कुगुरुह 164. (क) पुजि 165. (ख) सिर 166. (क), धूणहि 167. (क) तिरथु काइ भमेइ (ख) काइ भमेहु 168. (क) देव सचेयणु सत्यगुरु, जो दरिसावइ भेउ (ख) देह सचेयणु संघ गुरु, जो दरिसावहि भेव 169. (क) सुनै सुनावइ अनुभमइ, सौ नरु स्यौपुरि जाई । कर्म हणे भव निर्दलौ, गोपाल हिए समाइ ।

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