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जैनविद्या
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गुरु ही जिनेन्द्र भगवान् हैं, गुरु सिद्ध भगवान् हैं, गुरु शिव हैं और गुरु रत्नत्रय - सारस्वरूप हैं । वे ही अपने पर के स्वरूप को दिखलानेवाले हैं जिससे संसाररूपी समुद्र से पार हो जाते हैं । अरे श्रानन्द को प्राप्त करनेवाले ! उनके मार्गदर्शन से जीव संसारसमुद्र से पार हो जाते हैं ।1351
पत्थर को पूज कर सिर मत धुनो, तीर्थों में घूमने से भी क्या ? चैतन्य चिन्मात्र ही सच्चा गुरु है जो प्रात्मा-परमात्मा के भेद को दर्शाता है । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! अपना चैतन्य श्रात्मा ही श्रात्मा-परमात्मा का भेद दर्शानेवाला है ||36||
जो अपने शुद्धात्मा भगवान् को सुनता है, सुनाता है और उसका अनुभव करता है वही मनुष्य मुक्ति-पुरी में जाता है। जो कर्मों का हनन करना चाहते हैं, संसार का निर्दलन करना चाहते हैं उनके हृदय में ही यह बात समाती है । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! भव्य जीवों को ही यह बात समझ में आती है ॥37॥
जिनके मस्तक पर ज्ञान का तिलक है, सिर पर अनुभूति का मुकुटमरिण है और जो आणंदा को सुनते ही उल्लसित हो जाते हैं वे साधु गुरु ही योग को धारण करते हैं । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! वे साधु गुरु ही प्रात्मध्यानी योगी होते हैं ॥38॥
जो समता भाव में लीन रहते हैं, अपने ज्ञान नेत्रों से आत्मा का दर्शन करते हैं, अपनी आत्मा का जो अनुभव करते हैं, वे ही निरालम्ब होते हैं । अरे श्रानन्द को प्राप्त करनेवाले ! जो आत्मा का अनुभव करते हैं, वे ही आलम्बनरहित होते हैं ॥39॥
इसको सुनते ही जिसका हृदय कसमसाने लगता है, मस्तिष्क में शोक उत्पन्न हो जाता है, जिसके मन में रोष बढ़ जाता है वह मिथ्यादृष्टि है । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! वह मिथ्यादृष्टि है ||401
मैं प्रानन्दतिलक नामवाले इस काव्य को हिण्डोला छन्द में गाता हूँ । महान् आनन्द का दर्शन मुझे कराया गया है इसलिए अब मैं शिवपुरी (मोक्ष) जाता हूँ । श्र श्रानन्द को प्राप्त करनेवाले ! अब मैं शिवपुरी जाता हूँ ||41॥
अपने मन के भ्रम-सन्देह का निवारण करके मैं अपने गुरु पर बलि - बलि जाता हूँ जिन्होंने बिना तेल (राग) और बिना बाती ( साधन) के श्रात्मा तथा परमात्मा का भेद दर्शाया है, उन सद्गुरु पर न्यौछावर हूँ अरे अानन्द को प्राप्त करनेवाले ! जिन्होंने यह भेद दिखलाया है उनकी बलिहारी है ॥42॥
महान् आनन्द को दर्शानेवाले सद्गुरुदेव यह कहते हैं कि शिवपुरी (मोक्षमार्ग) श्राये बिना और चिदानन्द चैतन्यदेव की सेवा किए बिना परमब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती - यह सद्गुरु-वारणी जयवन्त होवे । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! चिदानन्द चैतन्यदेव की सेवा करो ॥143॥