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जनविद्या 3. मुहावरे तथा लोकोक्तियां
पुष्पदंत की भाषा सजीव भाषा है जिसमें लोकोक्तियों, मुहावरों आदि के सम्यक् प्रयोग से प्रवाह बना हुआ है, साथ ही अर्थ में गाम्भीर्य बना हुआ है । अपभ्रंश साहित्य में डॉ० कोछड़ ने इसप्रकार की लोकोक्तियों का संग्रह किया भी है। आज आवश्यकता इस बात की है कि समस्त साहित्य से इस प्रकार का संग्रह किया जाय । कुछ उदाहरण देखिये -
भुक्कवउ छणयंदहु सारमेउ । (पूर्णिमा चन्द्र पर कुत्ता भौंके उसका क्या बिगाड़ेगा) उहाबिउ सुत्तउ सीहु केरण । (सोते सिंह को किसने जगाया) मारणभंगु वर मरणु ण जीविउ । (अपमानित होने पर जीवित रहने से मृत्यु भली) को तं पुसए पिडालइ लिहियउ। (मस्तक में लिखे को कौन पौंछ सकता है) भरियउ पुणु रितउ होइ राय (भरा खाली होगा) लूयांसुत्तें वज्झइ मसउ ण हत्थि णिरुज्झइ ।
(मकड़ी के जाल सूत्र से मच्छर तो बांधा जा सकता है, हाथी नहीं रोका जा सकता।)
खग्गे मेहें कि णिरुजलेण, तरुणा रसरेण किं णिप्फलेण ।
(पानी रहित मेघ से और खड्ग से क्या लाभ ।) 4. प्रलंकारमयी भाषा
. भाषा में अनुप्रास, यमक, श्लेष, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकार प्रचुर रूप में व्याप्त हैं जिनसे काव्य का सौन्दर्य द्विगुणित हो उठा है । एक उत्प्रेक्षा द्रष्टव्य है -
विज्जुलियए कंचुलियए भूमियदेहए सुरवणु
घणमालए णं बालए किउ विचित्त उप्परियणु ।
विद्युत्रूपी कंचुकी से भूषित देहवाली धनमालारूपी बाला ने मानो सुरधनुरूपी उपरितन वस्त्र धारण किया हो।
____ इस प्रकार भाषा को सजीव तथा सप्राण, साथ ही प्रवाहमयी धारा का रूप प्रदान करनेवाले सभी तत्त्व पुष्पदंत की भाषा में विद्यमान थे। एक ओर उसकी भाषा में संस्कृत की समास-शैली, जिसमें अलंकारों का बाहुल्य, शब्दों का चमत्कार होने से क्लिष्टता प्रा गई है तो दूसरी ओर सरल प्रवाहमय भाषा के प्रयोग से जनसाधारण के अधिक निकट होने का गुण भी उसमें विद्यमान है। यही भाषा लोक-भाषा है जिसमें लोक में प्रचलित मुहावरे तथा लोकोक्तियाँ बिना प्रयास चले जाते हैं और आज की हिन्दी का विकास भी इसी लोक-प्रचलित भाषा के स्वरूप से हुआ है।