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जनविद्या
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क्षणिकवाद की दृष्टि से ज्ञान भी एक संयोगजन्य वस्तु है । पुष्पदंत महाकवि कहते हैं कि यदि ज्ञान संयोगजन्य वस्तु है तब तो संयोग नष्ट होने पर ज्ञानी को भी लोक के पदार्थ दिखाई नहीं देंगे। यदि क्षणविनाशी पदार्थों में अविच्छिन्न कारण कार्य रूप धाराप्रवाह माना जाय तो गौ के विनाश हो जाने पर दूध कहाँ से दुहा जाता है ? दीपक के क्षय हो जाने पर अंजन की प्राप्ति कहाँ से होती है ? यदि प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त के अनुसार कहा जाय कि क्षण-क्षण में अन्य-अन्य जीव उत्पन्न होता रहता है तो प्रश्न उत्पन्न होता है कि जो जीव घर से बाहर जाता है वही घर कैसे लौटता है ? जो वस्तु एक ने रखी उसे दूसरा नहीं जान सकता । शून्यवादी भी यदि जगत् में समस्त शून्य का ही विधान करता है तो उसके पंचेन्द्रिय दण्डन, चीवरधारण, व्रतपालन, सात घड़ी दिन रहते भोजन तथा सिर का मुण्डन कैसे होता है ? 15
___इन सभी दर्शनों का संक्षेप में खण्डन कर महाकवि ने अहिंसाधर्म की श्रेष्ठता को स्थापित किया है। इसी प्रसंग में मोक्ष के स्वरूप पर भी आलोचनात्मक दृष्टि से विचार किया गया है । तदनुसार मोक्ष न तो गुणों के क्षय का नाम है, न वह शून्यरूप है और न आकाश में आत्मा का विलीन हो जाना मोक्ष है।18 मोक्ष तो वस्तुतः कर्मों की प्रात्यन्तिकक्षयजन्य अवस्था का नाम है जिसमें जीव अन्य कर्मफलों से विमुक्त होकर आत्यन्तिकज्ञानदर्शनरूप अनुपम सुख का अनुभव करता है ।
___इस प्रकार महाकवि पुष्पदंत ने बड़ी तलस्पशिता के साथ प्रमुख भारतीय दार्शनिक पक्षों का खण्डन किया है । उनके कुछ तर्क तो दार्शनिक परम्परा से हटकर व्यावहारिकता के संसार से जुड़े हुए हैं । इसलिए यहाँ तर्क और दर्शन की शुष्कता नहीं बल्कि वह सरसता, गम्भीरता और मनोवैज्ञानिकता से ओत-प्रोत है। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने विचार सामाजिक क्षेत्र को विशुद्ध सात्त्विक और जनग्राही बनाने की दृष्टि से भी प्रस्तुत किए हैं। द्रव्यार्जन त्याग और धर्म पर आधारित हो, गरीबों के उद्धार में उसे लगाया जाय, हीनोन्मान आदि का व्यवहार न हो1", बालदीक्षा उचित नहीं, बालकों में गुणों के प्रेरक संस्कार जाग्रत किये जायें1 और सच्चे धर्म के स्वरूप को समझा जाय । इसलिए महाकवि पुष्पदंत कुशल तार्किक और दार्शनिक तो थे ही, साथ ही जीवन-मूल्यों को समझाने की प्रक्रिया में सफल और निःस्वार्थ समाजसुधारक भी। उनके सभी कथा-ग्रंथ अहिंसा की प्रतिष्ठा में जागरूक स्तम्भ हैं जो मानवीय चेतना को झंकृत कर व्यक्ति को हिंसा से मुक्त करते हैं और सही धर्म मार्ग की ओर जाने के लिए एक लैम्पपोस्ट का काम करते हैं।
1. बंभणाई कासवदिसिगोन्तई, गुरु वयणामयपूरिय सोन्तइं ।
मुखाएवी केसवरणामई, महु पियराइं होंतु सुहधाम । संपज्जउ जिणभावे लइयहो, रयणत्तयविसुद्धि बंगइहो ।
___- णायकुमार प्रशस्ति । 2. जसहरचरिउ प्रशस्ति 3. मारणभंगि वर मरणु रण जीवउ, एहउ इय सुट्ठमइंअवउ ।
- महापुराण 16.21