Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 119
________________ महानन्दि कृत आनन्दा आनन्दतिलक अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले योगी ! सम्पूर्ण संकल्प-विकल्प को रोक कर अतीन्द्रिय आनन्दस्वरूप चिदानन्द चैतन्य भगवान् की पूजा की जाती है जो शुद्धात्मा भगवान् सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है ॥1॥ • अपनी शुद्ध प्रात्मा निरंजन है, शिव है, परमानन्द है किन्तु मूढ़, अज्ञानी गुरु के उपदेश से प्रतिबद्ध हुए बिना अज्ञान-अन्धकार में भूले रहते हैं और जो वास्तव में देव नहीं हैं, उनकी पूजा करते हैं। हे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! गुरु के बिना अन्धे हुए भूले रहते हैं ॥2॥ - अज्ञानी अड़सठ तीर्थों की यात्रा करता है, इधर-उधर भटकता हुआ अपना जीवन समाप्त कर देता है किन्तु निजात्मा शुद्धात्मा भगवान् की वन्दना नहीं करता है । अपने ही घट में महान् आनन्दशाली देव हैं। हे,आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! अपने ही घट में महान् आनन्दशाली देव हैं ।।3।। जिसके भीतर पापरूपी मल भरा हुआ है, ऐसे अज्ञानी के बाहर में स्नान करने से क्या लाभ है ? क्योंकि स्नान करने से चित्त में लगा हुआ मल किस प्रकार छूट सकता है ? हे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! स्नान करने से मन का मैल कैसे दूर हो सकता है ।4।। ध्यानरूपी सरोवर में अमृतरूपी जल भरा रहता है। मुनिवर उस अमृतजल से स्नान करते हैं जिससे उनके आठ कर्मरूपी मल धुल जाते हैं और वे शीघ्र ही निर्वाण (सच्चे सुख) को प्राप्त करते हैं । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! वे शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं ॥5॥ हे योगिन् ! त्रिवेणी संगम में मत मरो, समुद्र में कूद कर अपने प्राणों का नाश मत करो। ध्यानरूपी अग्नि में शरीर को प्रज्वलित कर कर्मरूपी पटलों का क्षय कर लो। अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! कर्म-पटल का नाश कर लो ॥6॥ यदि अज्ञानी शास्त्र पढ़ता हुआ लोक-व्यवहार का पालन करता है और अचेतन मूर्ति की पूजा भी करता है तो उससे मुक्ति का द्वार नहीं मिल पाता है । अरे आनन्द को प्राप्त करनेवाले ! इन बाह्य क्रियाओं से मुक्ति का द्वार नहीं मिलता ॥7॥

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