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जैन विद्या
प्रयोग किया है। तीसरे, रचना आनन्द से भरपूर है । अतः "पाणंदा" नाम सार्थक है । "पाणंदा" अपभ्रंश शब्द है और आनन्द या आनन्दतिलक संस्कृत नाम है।
प्रस्तुत रचना का सम्पादन तीन प्रतियों के आधार पर किया गया है । प्रथम प्रति उक्त गुटका है जिसे "क" प्रति कहा गया है। दूसरी प्रति भी उक्त संस्थान में स्थित वेष्टन संख्या 86 में लिपिबद्ध शास्त्राकार रचना है, जिसके अन्त में लिखा है - इति आणंदा समाप्ता । इस प्रति का अन्तिम दोहा अपूर्ण है। इस प्रति को 'ख' प्रति कहा गया है। दोनों ही प्रतियों में छन्द संख्या 25 के पश्चात् 27 लिखी हुई मिलती है। अतः कुल छन्द 43 ही हैं।
तीसरी प्रति अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर की प्रकाशित प्रति है जिसका मूल पाठ बिना किसी सम्पादन के डॉ. हरीश ने "आणंदा" के नाम से 'प्राचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ' के द्वितीय खण्ड पृ० 170-172 में प्रकाशित कराया था।
प्रतिलिपिकारों ने रचना को अनेक स्थलों पर बहुत ही अशुद्ध लिखा था। अतः भाषा, छन्द, अर्थ की दृष्टि से शुद्ध करने में कई दिन लग गये फिर भी अधिकतर पाठ ज्यों के त्यों मूल प्रतियों के दिये हैं । कोई पाठ किसी प्रति से दिया है और कुछ अंश दूसरी प्रति का मिला दिया है । इस प्रकार रचना को मूल रूप में प्रस्तुत करने का यह अध्यवसाय किया गया है।