Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 116
________________ 110 जैनविद्या रचना श्रागत बंध (बन्ध), कम्मु (कर्म), केवलरणाणु (केवलज्ञान), मुणिवरु ( मुनिवर), णिव्वाणु ( निर्वाण ) और कम्मपडल ( कर्मपटल) जैसे कुछ शब्दों के प्रयोग से यह पता चल जाता है कि कवि जैनधर्मावलम्बी है। जैनधर्म व जैनदर्शन का उसका गहन अध्ययन है । किन्तु उसके जीवन के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका है। नाम भी नया ही है । भाषा से यह पता लगता है कि रचनाकार भारत के पश्चिम - उत्तरप्रदेश दिल्ली-हरियाणा के निकटवर्ती क्षेत्र का रहा होगा। क्योंकि भाषा - रचना खड़ी बोली के अधिक निकट है और प्राचार्य हेमचन्द्र की भाषा के अनन्तर ही रची गई प्रतीत होती है । अतः अनुमानतः रचना काल तेरहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध जान पड़ता है । डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल ने इसका रचना - काल बारहवीं शताब्दी और डॉ० हरिशंकर शर्मा "हरीश " ने तेरहवीं शताब्दी सम्भावित की है । किन्तु उनकी इस सम्भावना का सम्बन्ध प्राचीन राजस्थानी से सम्बद्ध है, अतः यथार्थता से परे है। किन्तु रचना के सम्बन्ध में उनका यह कथन रेखांकित करने योग्य है - "भाषा की सरलता, रचना की गीतिमयता, लोकभाषामूलकता, शब्द चयन तथा प्रासादिकता द्रष्टव्य है । रचना में पद - लालित्य के साथ-साथ अर्थ- गाम्भीर्य भी है । कवि ने निर्वारण की प्राप्ति करानेवाले महानन्द का निवास स्थान कितने मार्मिक कथन द्वारा सम्पन्न किया है ।" यथार्थ में यह एक ललित रचना है । इसका लालित्य पदों तक ही सीमित नहीं है, किन्तु भाषा के साथ ही भावों में भी अभिरामता लक्षित होती है । उदाहरण के लिए - भीतर भरियउ पाउमलु मूढा करहि सरगाणु । जे मल लागा चित्त महि, ते किम जाय सरगाणु ॥ इस रचना की निम्नतम सीमा बारहवीं शताब्दी और अधिकतम सीमा पन्द्रहवीं शताब्दी निश्चित की जा सकती है। इसकी भाषा बारहवीं शताब्दी के पूर्व की नहीं है । इस पर "पाहुडदोहा " जो कि अपभ्रंश की दसवीं शताब्दी की रचना है, उसका प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी के पाण्डुलिपि सर्वेक्षणविभाग में वेष्टन संख्या 203 में जिस गुटके में पाना सं० 44 से 46 तक यह लिखी हुई मिलती है, उस गुटके का लेखन-काल वि० सं० 1539 है। अतः यह निश्चित है कि रचना इसके पूर्व कभी लिखी गई थी । जहाँ तक रचना के नाम का सम्बन्ध है, इसी गुटके के अन्त में " इति श्रानंदतिलकु समाप्तं " उल्लेख किया गया है। स्वयं कवि ने कहा है - हिंडोला छंदि गाइयउ प्रारणंद तिलकु जु गाउ । 1 हिंडोला छन्द में यह गाया गया है और आनन्दतिलक इसका नाम है। इसका अपर नाम "आणंदा" भी है । "आणंदा" अधिक प्रचलित नाम प्रतीत होता है । एक तो लोकधुन बतलाने के लिए इस शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है, दूसरे, प्रत्येक दोहे के पश्चात् हिंडोला की भाँति एक आवृत्ति पुनः दुहराने के लिए "आणंदा रे” शब्दों का

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