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जैनविद्या
संस्थान की एक प्रति वि. सं. 1539 के एक गुटके में तथा दूसरी शास्त्राकार है जो गुटके से पर्याप्त पश्चात् की लिपीकृत ज्ञात होती है। दोनों प्रतियों में मुख्य भेद यह है कि गुटके में 'न' और 'ण' का प्रयोग मिलता है तथा शब्दों का उकारान्त रूप प्रायः नहीं है जो कि अपभ्रंश भाषा की निजी विशेषता है किन्तु नवीन प्रति में ये दोनों विशेषताएं सुरक्षित हैं जिससे ज्ञात होता है कि नवीन प्रति गुटके से भी प्राचीन किसी प्रति की प्रतिलिपि है।
हमारे इस प्रयास के संबंध में पाठकों के सुझावों का सदा ही स्वागत है।
प्रधान सम्पादक
1. रचना के प्रकाशन के पश्चात् श्री रतनलाल कटारिया, केकड़ी ने हमें सूचित किया है कि यह रचना 'अनेकान्त', श्रावण वि. सं. 1999 वर्ष 5 अंक 6-7 में पं० दीपचंद जैन पाण्ड्या के हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हो चुकी थी। इस सूचना के लिए हम उनके प्राभारी हैं।