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भूमिका
- डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री
....प्रस्तुत कृति अपभ्रंश की गीतियों में एक श्रेष्ठ रचना है । इसका मूल स्वर रहस्यवादी है। इसमें प्रात्मा और परमात्मा के भेद तथा रहस्य का प्रतिपादन किया गया है। प्रसंगतः बाह्य क्रिया-काण्ड का निषेध, चित्त-शुद्धि एवं भाव-शुद्धि तथा गुरु की महत्ता, सहज समाधि का निरूपण और आत्म-स्वभाव में अपने उपयोग को स्थिर करने का वर्णन किया गया है । रचनाकार ने सामान्यतः पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग किए बिना सीधे सरल शब्दों में धार्मिक व आध्यात्मिक साधना का निर्देश किया है। अतः रचना साम्प्रदायिक भेद-भावना से रहित प्रत्येक व्यक्ति के आत्म-कल्याण के लिए प्रेरणास्पद है।
43 पद्यों की इस रचना का नाम "पाणंदा" है। नाम से ही स्पष्ट है कि यह रचना आनन्द का स्रोत है । इसका भाव स्पष्ट रूप से समझ में आते ही आनन्द-रस की धारा बहने लगती है । इस रचना की विषय-वस्तु आध्यात्मिक है। प्रथम शताब्दी के प्राचार्य कुन्दकुन्ददेव से लेकर छठी शताब्दी के योगीन्द्रदेव, देवसेन, श्रुतसागर और दसवीं शताब्दी के मुनि रामसिंह के "पाहुडदोहा" में वर्णित एक दीर्घ परम्परा रचनाकार के समय तक चली आ रही थी। कवि ने उसी रहस्यवादी. परम्परा में योगी की अरत्मसाधना का वर्णन किया है । रचना लघु होने पर भी सारगर्भित है। .... ..