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जनविद्या
है। अन्य मतों की अपेक्षा इसका खण्डन अधिक विस्तार से किया गया है । इससे यह तथ्य सामने आता है कि उस समय भी भौतिकतावादी-प्रवृत्ति की ओर लक्ष्य अधिक था।
पुष्पदंत ने बौद्धदर्शन के नैरात्म्यवाद, क्षणिकवाद आदि सिद्धान्तों की भी आलोचना की है । बुद्ध ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद से मुक्त होने के लिए अव्याकृतता का सिद्धान्त अपनाया । पर जब आत्मवादी समुदाय से जूझते-जूझते थक गये तो प्रथमतः उन्होंने इस प्रश्न को विभज्यवादी ढंग से टालने का प्रयत्न किया । बाद में 36 धर्मों को अनात्म (अपने नहीं) मानकर उनसे मोहाछन्नता को दूर करने का आदेश दिया। धीरे-धीरे यही सिद्धान्त अनात्मवाद के रूप में पंचस्कन्धों के माध्यम से सामने आया। फिर परमार्थसत्य और संवृत्तिसत्य के आधार पर उसकी व्यवस्था हुई । तदनन्तर सन्ततिवाद, विज्ञानवाद, क्षणिकवाद और शून्यवाद तक उसकी यात्रा दिखाई देती है ।
बौद्धदर्शन आत्मा को विज्ञान-स्कन्ध का संघात ही मानता है । यह विज्ञानवाद माध्यमिक संप्रदाय के शून्यवाद के विपरीत खड़ा हुआ । इसके अनुसार जगत् के पदार्थ शून्य भले ही हों पर शून्यात्मक प्रतीति के ज्ञापक विज्ञान को सत्य पदार्थ अवश्य स्वीकार किया जाना चाहिये । सभी ज्ञान चित्त के काल्पनिक परिणमन हैं। आत्मदृष्टि को भी भ्रम-मात्र माना है। इसीलिए कवि ने यह कहकर इसकी आलोचना की है कि यदि विज्ञान भी त्रैलोक्य स्कन्धमात्र ही है तो फिर बौद्ध-धर्म के अन्तर्गत ही भ्रान्ति के द्वारा भ्रान्ति को कैसे समझा जाय ? यदि चेतन क्षण-क्षण में परिवर्तित होता जाता है तो फिर छह मास तक व्याधि की वेदना कौन सहन करता है ? यदि वासना के द्वारा ज्ञान प्रकट होता है तो क्या वासना स्वयं क्षण मात्र में विनष्ट नहीं हो जाती ? क्या वह पंच स्कन्धों से भिन्न है ? 18 बौद्धदर्शन में आत्मा के स्थान की पूर्ति चित्त, नाम, संस्कार अथवा विज्ञान ने की। उसी रूप में उसका यहाँ खण्डन किया गया।
महापुराण में महाबल के मंत्रियों में संभिन्नमति नामक मंत्री क्षणिकवाद का समर्थक है। बौद्धधर्म के सभी संप्रदाय किसी न किसी रूप में क्षणिकवाद को स्वीकार करते हैं । स्थविरवादी मात्र चित्त चैतसिकों की क्षणिकता को स्वीकार करते थे। सर्वास्तिवादी वैभाषिक बाह्य जगत् को भी किंचित् क्षणिक मानने लगे। परन्तु सौत्रान्तिक पूर्ण क्षणिकवाद पर विश्वास करने लगे । इसलिए बहुपदार्थवादी बौद्धदर्शन कालान्तर में क्षणभंगवादी दर्शन बन गया। इसके अनुसार समस्त स्वलक्षण पदार्थ अपने स्वभावानुसार जिस क्षण में उत्पन्न होते हैं उसी क्षण में विनष्ट हो जाते हैं । इस तरह पूर्वक्षण विनष्ट होकर उत्तर क्षण को उत्पन्न करता और वर्तमान क्षण अस्तित्व में रहकर क्रमबद्धता बनाये रखता है । इस उत्पत्ति और विनाश में उसे किसी कारण की आवश्यकता नहीं होती। आगे इसी का विकास माध्यमिक संप्रदाय ने शून्यवाद के रूप में किया । सौत्रान्तिक दर्शन में बाह्य पदार्थों को प्रत्यक्षतः ज्ञेय नहीं माना गया। विज्ञानवाद में उनकी चित्तमात्र के रूप में सत्ता स्वीकृत हुई । पर माध्यमिक में बाह्य और आन्तरिक दोनों पदार्थों के अस्तित्व को अस्वीकार कर दिया गया । यहाँ पदार्थ चतुष्कोटियों से विनिर्मुक्त तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है । इसलिए उसे अभावात्मक नहीं कहा जा सकता किन्तु निरपेक्ष होने के कारण शून्यात्मक माना जाता है ।14.