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जनविद्या
की भूरि-भूरि प्रशंसा भी की है। जैसे अपमान मिलने पर उन्हें संसार से वितृष्णा हो गई थी वैसे ही भरत और नन्न का प्राश्रय पाने से उन्हें धर्म कथा की ओर रुचि हो गई थी। इन कथाओं के माध्यम से ही उन्होंने अपने सारे मनोभावों को चित्रित कर दिया है ।
महाकवि पुष्पदंत साहित्यरसिक और रससिक्त कवि थे। उनकी दृष्टि से काव्य वही है जो सालंकार हो, अर्थयुक्त हो, सरस हो, छंद की मात्राओं से निर्दोष हो' एवं प्रसादगुणयुक्त हो । कवि का काव्य निःसन्देह इस निष्कर्ष पर खरा उतरता है। उनके जीवन दर्शन ने इसमें और निखार ला दिया है। उनकी दार्शनिकता भी इसके पीछेपीछे चलती है।
कवि की रचनामिता के साथ अधर्म और हिंसा की मूल मान्यताओं का खण्डन कर धर्म और अहिंसा को सुप्रतिष्ठित करने का मूल उद्देश्य जुड़ा हुआ है। इस उद्देश्य में कवि सफल भी हुआ है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के साथ एक अन्य पक्ष भी सम्बद्ध है, जैनदर्शन का प्रतिपादन कर जैनेतर दर्शनों का ऊहापोह । महाकवि का यद्यपि यह मूल उद्देश्य नहीं रहा फिर भी कथाचरित ग्रंथों में यथावसर उन्होंने इस पक्ष को उपेक्षित नहीं रखा। इसमें भी उन्होंने ऐसे पक्षों को लिया है जिनसे धर्म की मूल भित्ति ढह रही थी। वैशिष्ट्य यह है कि दार्शनिक विचारधारा व्यक्त करते समय उनका न तो महाकवित्व शुष्क हुआ
और न कथा-प्रवाह में किसी तरह का अवरोध आया । समूचा खण्डन-मण्डन सरस, संक्षिप्त और गम्भीर रहा है। यह इतना अधिक संक्षिप्त पर सुसम्बद्ध है कि पाठक उसे पढ़कर बिलकुल ऊबता नहीं बल्कि सरसता का अनुभव करता है। इस खण्डन प्रणाली में दार्शनिकता, काव्यरसिकता तथा व्यावहारिकता का सुन्दर समन्वय हुमा है।
महाकवि ने कपिल के सांख्य-दर्शन का खण्डन किया है । सांख्य-दर्शन के अनुसार पुरुष चैतन्यरूप होते हुए भी निष्क्रिय, निर्मल और विशुद्ध है। जड़ प्रकृति निष्क्रिय चेतन . के संयोग से सृष्टि का सम्पादन करती है। इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए कवि ने कहा है कि एक ही तत्व नित्य है ऐसा क्यों माना जाता है ? यदि वह सही है तो एक जो देता है उसे दूसरा कैसे लेता है ? जब एक स्थित है तो अन्य कैसे दौड़ते हैं ? एक मरता है तो अन्य कैसे जीवित रहते हैं ? यदि पुरुष को नित्य माना जाता है तो वह किस प्रकार बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था प्राप्त करता है ? सांख्य-दर्शन के अनुसार पुरुष क्रियारहित, निर्मल और शुद्ध है तब फिर वह प्रकृति द्वारा बंधन में कैसे पड़ जाता है ? क्रिया के मन, वचन और काय का क्या स्वरूप होगा तथा बिना कुछ कर्म किये अनेक जन्मों का ग्रहण भी कैसे होगा ? बिना क्रिया के जीव पाप से कैसे बंधेगा ? कैसे उससे मुक्त होगा? यह सब विरोधी प्रलाप किस काम का ?
चार्वाक भौतिकतावादी दर्शन है । कवि ने उसका भी खण्डन किया है। महापुराण में राजा महाबल के मन्त्री स्वयंबुद्ध, णायकुमारचरिउ में मुनि पिहिताश्रव तथा जसहरचरिउ में एक जैन मुनि इस सिद्धान्त की आलोचना करते हैं। चार्वाक की दृष्टि में चारों भूतों के संमिश्रण से चैतन्य की उत्पत्ति होती है जैसे - गुड़, जल आदि के मिश्रण से मद्यशक्ति। आत्मा और शरीर में भी कोई भेद नहीं है । स्वयंबुद्ध कहता है कि यदि भूतचतुष्टय