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जीवन की क्षणभंगुरता
छरिण छरिण जडयणु कि हरिसिज्जहि, आउ वरिसवरिसेण जि खिज्जइ । जीय भरणंतहं विहसइ तसई,
मर पभरणंतहं रुं जइ रूसइ । रण सहइ मरणह केरउ गाउं वि,
पहरणु धरइ फुरइ रित्थाउ वि । खयकालहु रक्खंति रग किंकर,
मय मायंग तुरंगम रहवर ।
खयकाल रक्खति र केसव,
चक्कवट्टि विज्जाहर वासव ।
होइ विसूई सप्पें घेप्पइ,
दादिविसारिणमृर्गाहं दारिज्जइ ।
जलि जलयर थलि थलयर वइरिय,
गहि हयर भक्वंति श्रवारिय ।
तो वि जीउ जीवेवइ वंछह, लोहें मोहें मोहिउ
जैन विद्या
श्रच्छइ ।
अर्थ- मूर्ख जीव प्रतिक्षरण क्यों हर्षित होता है जबकि आयु प्रतिवर्ष क्षीण होती है ? यह जीव 'जीवो' ऐसा कहने पर हंसता और संतुष्ट होता है और 'मर' ऐसा कहनेवालों पर गर्जता और क्रोधित होता है, मरने का नाम भी सहन नहीं करता, निर्बल होते हुए भी स्फुरित होकर शस्त्र उठा लेता है किन्तु मरणकाल में नौकर-चाकर, मत्त हाथी, घोड़ा, रथवान, केशव, चक्रवर्ती, विद्याधर और इन्द्र इनमें से कोई भी उसकी रक्षा नहीं करते। उसे हैजा हो जाता है, सर्प डस लेता है, डाढ़ और सींगवाले जानवर उसे फाड़ डालते हैं। जल में जलचर, थल में थलचर जीव ही उसके वैरी हैं और आकाश में नभचर जीव बिना विलम्ब कि उसका भक्षरण कर लेते हैं तो भी यह जीव लोभ और मोह से मोहित होकर जीने की इच्छा रखता है ।
-महापुरारण : 38.19