Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 65
________________ जैनविद्या तो हलि हरि जयकारिवि चलिउ, तणुभूसरणमणिय रसंवलिउ । तारावलिहारावलिउरहि, उत्तंगहि तुंगपयोहर हि । पविमलपसरण दिसवय रिणयहि, चंदक्क मरणोहरराय रिणयहि । ग्राहंडलधणु उप्परियहि, रंजियविज्जाहरगरण मरण हि । लच्छिहि उवरि बेंतु पयई, पडिसुहडहं संजणंतु भयई । संखपंतिदसणु वडवारगल जालाकेसरु । वेलापुंछचलु मरिगगगगहु सीहु व भासरु । 59 74.6. 7-13 आगे वह " विचार्यमाण" शब्द और " प्रख्यातवृत्ति" चमत्कार तथा कांति गुण से विशिष्ट एवं “यमक" "वर्ण विन्यास - वक्रता” और लाटानुप्रास से पुष्ट "ध्वनि-रूपक” के रूप में एक कल्पना-चित्र की उद्भावना तब करता है जब वह पात्र और प्रकृति के रूप को अभेद सादृश्य के सहारे एकावस्थित करने की चेष्टा करता है - गिरि सोहइ वरवरणवारणेहि, पहु सोहइ वारिणिवारणहि । गिरि सोहइ उड्डियवारणरेहि, पहु सोहइ खगघयवारणरेहि । गिरि सोहइ रणवबारणसणेह, पहु सोहइ भडवारणा सह । पुग्वको डिसिल दिट्ठ तेहि, पुज्जिय वंदिय हरिहलह रेहि । 79.1.3-7 और आगे वह " रस- चमत्कार" और "कोटि- गुण" से " विशिष्ट भ्रांतिमान् ” के रूप में एक रमणीय कल्पना-चित्र का उपयोग तब करता है, जब वह जल- केलि में मग्न अपने एक पात्र के चमत्कृत "मौग्ध्य-विलास" का चित्रण करता है - पत्तिपित्त पेच्छिवि जलकरण, हारु ण तुट्टउ प्रवलोइय थरण । कवि र इच्छइ जलपक्खालणु, कज्जल तिलयपत्त पक्खालणु । म० 71.17. 8-9 हमारे कवि ने 'श्लेष गुण" से पुष्ट " उक्तविषया वस्तुत्प्रेक्षामाला" के रूप में एक वैविध्यपूर्ण संदर्भ की उद्भावना अपने एक पात्र के अभिज्ञान पर विचार-विमर्श के सिलसिले में की है - प्रइक्कंठिएरण धरणीसें सज्जरग दिण्णजीययं । ता दिट्ठ मयच्छथरण कुंकुमपिंजर उत्तरीयं । बीसइ वंसग्गविलंब माणु, गं रिउ गयगय गंगण रिणवाणु । णं दावs कंतहि तरिणय वट्ट, इह दहमुहमारीयइं पयट्ट । उभय सीयइ सहवडाय, तं लेप्पिणु किंकर भत्ति प्राय । म. 73.5. 1-5 आगे का आलोच्य दाह-संस्कार का संदर्भ मध्यश्रुत्यनुप्रास युक्त वर्ण- चित्र है - etad सोहो trueredहो, रियलोयवसरणो । ess गरि घूमो रावणस्स भीमो दुज्जसो व्व कसरणो । घूमंतरि बालोलिउ, रग रगवमेहमज्भि विज्जुलियउ । पुणु वि ताउ सोहंति पईहउ, गं चामीयरतरुवर साहउ । संवारिय सीमंतिरणदेहउ, सिहिरगा पसरियाउ गं बाहउ । म० 76.9. 1-5

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