Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 89
________________ जैनविद्या 83 मन्दोदरी सीता के शरीरगत चिह्नों को देखकर पहचान गयी कि यह मेरी बालपन ही परित्यक्ता पुत्री है । उसे देखकर मन्दोदरी स्नेहासिक्त हो उठी और पुत्री से बोली- बेटी, चाहे मृत्यु का वरण कर लेना पर रावण का मनोरथ पूर्ण मत करना (68.352 ) । राम ने अणुमान् को संधि- प्रस्ताव लेकर पुनः विभीषण के पास भेजा । विभीषण ने भी रावण को समझाया पर मदान्ध रावण न माना । रावण के दुराग्रह के कारण विभीषण उन्हें छोड़कर राम की शरण में आ गया ( 68.499-500 ) । संधि प्रस्तावों को स्वीकार किये जाने पर अन्ततः दोनों पक्षों की सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ । भारी रक्तपात के पश्चात् लक्ष्मण ने रावण का शिरश्छेदन कर दिया (68.628-29) 1 राम ने मन्दोदरी आदि रानियों को धैर्य बंधाया । लंका का समस्त विजित राज्य व वैभव विभीषण को प्रदान किया और निर्दोष सीता को स्वीकार कर वहाँ से विहार किया । उत्तरत्र बयालीस वर्षों तक दिग्विजय यात्रा कर अर्द्ध चक्रवर्ती बन वे अयोध्या लक्ष्मण पृथ्वीसुन्दरी आदि सोलह हजार रानियों व राम ने आठ हजार रानियों सहित वैभव के साथ राज्य किया । कुछ समय पश्चात् राम व लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न को अयोध्या का राज्य प्रदान कर वाराणसी लौट आये । कुछ समय बाद लक्ष्मण की मृत्यु हो गयी । भ्रातृ-वियोग से सन्तप्त राम ने सांसारिक भोगों से विरक्त होकर लक्ष्मण के पुत्र को वाराणसी का राज्य प्रदान किया। सीता के प्राठ पुत्रों में विजयराम आदि सात बड़े पुत्रों द्वारा राज्य लेने से इंकार किये जाने पर कनिष्ठ पुत्र प्रजितंजय को मिथिला का राज्य प्रदान किया और स्वयं ने दीक्षा धारण कर ली । उनके साथ प्रणुमान्, सुग्रीव, विभीषण, पाँच सौ अन्य राजाओं व उनके एक सौ अस्सी पुत्रों ने भी दीक्षा धारण की। मुनिदशा में 395 वर्ष व्यतीत होने के बाद राम को केवलज्ञान प्रकट हुआ ( 68.715-16 ) । केवलज्ञान के प्रकट होने के 600 वर्ष पश्चात् राम व श्रणुमान् को सिद्ध-पद प्राप्त हुआ । सीता व पृथ्वीसुन्दरी आदि अच्युत स्वर्ग में गयीं । इस प्रकार आचार्य गुणभद्र कृत उत्तरपुराण में रामकथा की सरिता प्रवाहित है । इसके परिप्रेक्ष्य में इसी के समानान्तर अपभ्रंशभाषी महाकवि पुष्पदंत रचित महापुराण में समाहित रामकथा प्रस्तुत है - महाकवि पुष्पदंत भी रामकथा का प्रारम्भ राम के तीन भव पूर्व के प्रसंग से करते हैं ( अपभ्रंश म०पु० 69.4 ) । तथ्य व घटनाओं का निरूपण उसी प्रकार का है । इसमें भी राजपुत्र चन्द्रचूल, तदनन्तर मणिचूल, उत्तरत्र लक्ष्मण तथा मंत्रीपुत्र विजय, स्वर्णचूल व राम की परम्परा प्राप्त होती है ( 69.10 ) । पुष्पदंत ने भी राजा दशरथ को वाराणसी का शासक बताते हुए सुबाला नाम की रानी से ही राम का तथा केकयी से ही लक्ष्मरण का जन्म होना बताया है ( म.पु. 69.12 ) । उत्तरपुराण की भाँति ही पुष्पदंत के कथानक में भी कुछ समय पश्चात् राजा दशरथ

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