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जैन विद्या
"सेसव लीलिया कोलमसीलिया । पहुरणा दाविया केरण रग भाविया || धूलि - घुसरू ववगय afg |
सह जायक विलकोंतलु
जडिल्लु ॥
सुर्ब्राह ।
हो हल्लरु जो जो सुहं पई परणवंतउ ias रिगज्झइ दुक्किय का सुवि मलिगुण रग होइ मणु ।। धूलीधूसरो कडि किंकिणी सरो । रिगरुव मलीलउ कीलइ बालंउ ॥
भूयगणुं ॥
भलेरग ।
महापुराण
कहाँ लो वरणों सुन्दरताइ, खेलत कुंवर कनक श्रांगन में, नैन निरखि छवि छाइ । कुलहि लसत सिर स्याम सुभग प्रति, बहुविधि सुरंग बनाइ । मानो नवघन ऊपर राजत, मघवा धनुष चढ़ाई | प्रति सुदेश मृदु हरत चिकुर मन, मोहन मुख बगराइ । खंडित वचन देत पूरन सुख, घुटुरुन चलत रेनु तन मंडित,
अल्प- श्रल्प जलपाइ । सूरदास बलि जाइ ।। "
- सूरसागर
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दोनों के हृदय में एक-से भाव आ सकते हैं, फिर भी ऐसा हू-बहू नहीं हो सकता । यह जब होता है, तो प्रथम का द्वितीय पर प्रभाव सिद्ध हो ही जाता है । किन्तु केवल एक पद के मिल जाने भर से इतनी बड़ी बात नहीं कही जा सकती । यह सच है कि " वात्सल्य रस के भीतर की जितनी मानसिक वृत्तियों और दशाओं का अनुभव और प्रत्यक्षीकरण सूर कर सके, उतनी का और कोई नहीं । इसका कारण था - महाकाव्य का रचयिता बाल-वर्णन में अधिक नहीं खप सकता, उसे कथानक के साथ आगे बढ़ जाना होता है । महाकाव्य समूचे मानव-जीवन को लेकर चलता है, उसके एक अंश को लेकर नहीं । बाल-पन समूचे जीवन का एक हिस्सा भर ही तो है । सूरसागर महाकाव्य नहीं है । वह कृष्ण के बाल और कैशोररूप की विविध मनोदशाओं का मुक्तक शैली में निरूपण है । उन्हें विविध कोरणों से बाल-वर्णन के चित्ररण का अवसर था । पुष्पदंत महाकाव्य के प्रणेता थे । उन्हें कथा - प्रबन्ध का निर्वाह करना था। इस बीच बाल- दशा उकेरने का जितना अवकाश हो सकता था, उन्होंने दिया। रामचरितमानस के रचयिता तुलसी के साथ भी यही बात थी । वे राम के बाल रूप को वैसा अंकित न कर सके जैसा कि सूर ने कृष्ण का किया । इसमें महाकाव्य का कथा-प्रवाह बाधक था ।
यद्यपि पुष्पदंत ने अपनी कविता को जिन चरणों की भक्ति से ही स्फुरायमाण माना है, जीविका निर्वाह के खयाल से नहीं, किन्तु जिन भक्ति अध्यात्ममूला होने के कारण