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जनविद्या
जैनपरम्परा में राम त्रेसठ शलाका-पुरुषों में आठवें वासुदेव के रूप में मान्य हैं इसीलिये उनका जीवनचरित महापुराणों में जिन्हें त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित भी कहा जाता है, अनुस्यूत है। प्राचार्य जिनसेन-गुणभद्र कृत संस्कृत-महापुराण एवं महाकवि पुष्पदन्त कृत अपभ्रंश महापुराण में भी रामकथा सुतरां अंकित है। महापुराणों के अतिरिक्त स्वतन्त्र-रूप से राम के जीवन-चरित पर आधारित ग्रन्थ भी बहुलता से प्राप्त हैं। जैनपरम्परा में राम को “पद्म" नाम से भी अभिहित किया गया है। इसी कारण जनरामकथा पद्मपुराण, पद्मचरित, पउमचरिउ आदि नाम से उपलब्ध है।
जैनसाहित्य में रामकथा का प्रथम संकेत नामावलीबद्ध है, इसमें राम के वंशजों के नामोल्लेख मात्र ही हैं ।। रामकथा का सर्वाधिक प्राचीन विशद आख्यान प्राचार्य विमलसूरि के प्राकृत "पउमचरिउ" (ईसा की प्रथम शताब्दी) में प्राप्त होता है। तत्पश्चात् ईसा की सातवीं शताब्दी में प्राचार्य रविषेण ने संस्कृतभाषी "पद्मचरित" की रचना की जो प्राचार्य विमलसूरि के “पउमचरिउ" का छायानुवाद कहा जा सकता है। अपभ्रंश भाषा के महाकवि स्वयंभू कृत "पउमचरिउ" आठवीं शताब्दी की रचना है। उपयुक्त तीनों ग्रन्थ मुख्यतः रामकथा पर आधारित हैं। महापुराणों में प्रमुखतः संस्कृत महापुराण मुणभद्र (नवम शताब्दी) द्वारा रचित है और अपभ्रंश महापुराण महाकवि पुष्पदन्त (दसवीं शताब्दी) की रचना है। इस प्रकार जैनपरम्परा में तीनों प्राचीन भाषाओं में रामकथाविषयक साहित्य सृजन हुआ है।
जैनरामकथा दो धारात्रों में उपलब्ध है । एक धारा में विमलसूरि, रविषेण व स्वयंभू द्वारा मान्य और दूसरी धारा में गुणभद्र व पुष्पदन्त द्वारा मान्य कथाएं हैं। यहाँ
आचार्य गुणभद्र कृत उत्तरपुराण व महाकवि पुष्पदन्त कृत महापुराण की रामकथा पर विचार करना अभीष्ट है । प्रथमतः गुणभद्र कृत रामकथा प्रस्तुत है -
आचार्य गुणभद्र ने राम के तीन भव पूर्व की घटना पर प्रकाश डालते हुए रामकथा का प्रारम्भ किया है - चन्द्रचूल रत्नपुर के राजा प्रजापति का पुत्र था। मंत्रीपुत्र विजय उसका समवयस्क मित्र था। अत्यधिक स्नेह से पालित होने के कारण वे दोनों कुमार दुर्व्यसनी व दुराचारी हो गये। उन्होंने श्रेष्ठीकुमार श्रीदत्त की भावी वधू को अपने अधीन करने की चेष्टा की। उनके इस दुष्कृत्य से राज्य की सारी प्रजा क्षुब्ध हो उठी। परिणामतः उन्हें राज्य से निर्वासित कर दिया गया (म० पु० 67.117) । दोनों कुमारों ने आत्मग्लानिवश विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण कर ली (67.135)। तपश्चर्यापूर्वक आयु समाप्त कर राजपुत्र चन्द्रचूल स्वर्ग में मणिचूलदेव व मंत्रीपुत्र विजय स्वर्णचूलदेव हुए । चिरकाल तक स्वर्गीय सुखों का उपभोग करने के बाद आयु पूर्ण कर स्वर्णचूलदेव बनारस के राजा दशरथ की सुबाला नाम की रानी से फाल्गुन कृष्णा त्रयोदशी को पुत्ररूप में उत्पन्न हुए जिन्हें 'राम' नाम से अभिहित किया गया (67.149)। मणिचूलदेव दशरथ की दूसरी रानी केकयी से पुत्ररूप में उत्पन्न हुए जिनका नाम "लक्ष्मण" रखा गया।
कुछ समय पश्चात् राजा दशरथ अयोध्या चले गये। वहीं पर राजा की तृतीय पत्नी (जिनका नामोल्लेख नहीं है) से भरत व शत्रुघ्न नामक दो पुत्र हुए। अपरिमित शक्तिशाली राम व लक्ष्मण जब युवा हुए तो सर्वत्र उनकी कीर्ति का प्रसार होने लगा।