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पुष्पदंत
और सूरदास (वात्सल्य) - डॉ० प्रेमसागर जैन
मानव जीवन की दो प्रमुख वृत्तियां हैं - वात्सल्य और दाम्पत्य । इनमें भी हिन्दी के भक्ति-क्षेत्र के कवियों ने दाम्पत्य पर जितना लिखा, वात्सल्य पर नहीं। एक मात्र सूर ही इस क्षेत्र के जगमगाते रत्न हैं। यद्यपि प्राचार्यों ने वात्सल्य को पृथक् रस नहीं माना है, किन्तु उसमें कुछ ऐसी चमत्कारिक शक्ति है, जिससे किन्हीं-किन्हीं ने उसे पृथक् रस के रूप में भी स्वीकार किया है और उसका स्थायी भाव स्नेह माना है। यदि इस दृष्टि से देखा जाय तो जैन साहित्य में वात्सल्य रस के आलम्बन पंच परमेष्ठी और आश्रय माँ-बाप तथा भक्तजन होंगे। पालम्बन-गत चेष्टाएँ, कार्य और उस अवसर पर मनाये जानेवाले उत्सवादि उद्दीपन विभाव के अन्तर्गत आ जायेंगे।
सूर के बाद वात्सल्य का सरस उद्घाटन जैन हिन्दी साहित्य में ही हुआ है। जन्म के अवसरों पर होनेवाले आकर्षक उत्सवों की छटा को तो सूर भी नहीं छू सके हैं। जैन साहित्य में तो पालम्बन के गर्भ में आने के पहले ही कुछ ऐसा वातावरण बनाया जाता है