________________
74
जैनविद्या
कि वत्स के जन्म लेने के पूर्व ही वात्सल्य पनप उठता है। सत्रहवीं शताब्दी के पाण्डे रूपचंद के पंचमंगल, भूधरदास के पार्श्वपुराण और जगराम के लघुमंगल से ऐसा सिद्ध है। पार्श्वपुराण में तो जन्मोत्सव की जैसी छटा अंकित है वैसी समूचे हिन्दी साहित्य में देखने को नहीं मिलती। गर्भोत्सव और जन्मोत्सव जैन साहित्य की अपनी देन है, वह सूर-सागर में नहीं है । सूरदास में गर्भोत्सव तो हुआ ही नहीं है, जहाँ तक जन्मोत्सव का सम्बन्ध है सूर ने कृष्ण-जन्म की आनन्द बधाई के उपरान्त ही "यशोदा हरि पालने झुलाये" प्रारम्भ कर दिया है। ऐसी दशा में यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि जैनहिन्दी के बाल-वर्णन पर सूरदास का प्रभाव था।
सूरदास का जितना ध्यान बालक कृष्ण पर जमा, बालिका राधा पर नहीं। बालिकाओं का मनोवैज्ञानिक वर्णन, सीता और अंजना के रूप में जैन भक्ति काव्यों में उपलब्ध होता है। रायचन्द्र के "सीता चरित" में बालिका सीता की विविध दशाओं का सरस चित्र खींचा गया है। "अंजना सुन्दरी रास" में अंजना का बाल वर्णन भी हृदयग्राही है । बालिका सीता, मणिमय आंगन में बैठी अपने दीर्घायत नेत्रों से चारों ओर देख रही है, किन्तु जब पिता जनक पर नज़र पड़ती है, तो उसके होठों पर मीठी मुस्कराहट इस भांति छिटक जाती है, जैसे किसी भक्त के हृदय की दिव्य-ज्योति ही हो। खम्भों में पड़ते उसके मुख-कमल के प्रतिबिम्ब ने कमलों की माला ही रच दी है। अंजना को तो उसके मां-बाप उंगली पकड़कर चलना सिखाते हैं, किन्तु बार-बार वह गिर जाती है। वह भोली आँखों से पिता की ओर देखती है और वे उसको चूमकर गोद में उठा लेते हैं।
इस उपर्युक्त आधार पर कहा जा सकता है कि जैन हिन्दी का बाल-वर्णन अपनी ही पूर्व परम्परा से अनुप्राणित था। उस पर सूरदास का प्रभाव नहीं था। जैन संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के अनेक ग्रंथ तीर्थंकरों, महात्माओं और देवियों के बाल-वर्णन से युक्त हैं । वहाँ वात्सल्य बिखरा पड़ा है। जैन अपभ्रंश के दो प्रसिद्ध ग्रंथ स्वयंभू का पउमचरिउ और पुष्पदंत का महापुराण तथा अन्य रचनाएँ इस दिशा की मानस्तम्भ हैं। इन ग्रंथों का जैन हिन्दी के वात्सल्य रस पर स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है ।
यदि कोई यह कहे कि सूरदास का बाल-वर्णन भी इन जैन काव्यों से प्रभावित था, तो स्वीकार नहीं किया जा सकता। सूरदास अपनी ही निजी परम्परा से प्रभावित थे, जैन काव्यों से नहीं। अतः प्रो० जगन्नाथ शर्मा का यह कथन कि "हिन्दी का कौन कवि है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपभ्रंश के जैन प्रबन्ध काव्यों से प्रभावित न हा हो।"3 और डॉ० रामसिंह तोमर का लिखना कि – “अतः हम संक्षेप में कह सकते हैं कि हिन्दी की सभी काव्य-पद्धतियों का स्पष्ट स्वरूप हमें जैन कवियों द्वारा प्राप्त होता है।" मान्य नहीं है। डॉ० तोमर ने अपने कथन को प्रमाणित करने के लिए पुष्पदंत के महापुराण और सूरदास के सूरसागर के एक पद की तुलना की है । वह पद बाल-वर्णन से सम्बन्धित है जो इस प्रकार है.