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जैनविद्या
उतने “न्याय” और “प्रसाद गुण" से विशिष्ट " प्रथम समुच्चय" के रूप में एक चमत्कारपूर्ण कल्पना - चित्र का विधान तब किया है, जब वह परदारा - परित्याग सम्बन्धी घटना को अनेक प्रकार के तर्कों द्वारा बल देने की चेष्टा में अग्रसर हुआ है -
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वज्जावत्तसरासरणहत्थहु, दिज्जउ घरिरिण देव काकुत्थहु । चक्कपसूs रण चंगउं दावइ, लक्खणु वासुएउ महुं भावइ । stone fofक्कधेसु रग रप्पर, श्रण्हु कि रणि वालि समप्पड़ । tuju ares fक घर श्रावद, किं पण्पत्तिविज्ज परिधावइ । rong पंचror fe वज्जइ, अण्णु एवं कि लच्छि छज्जइ । tor घररिघे हि बज्झइ, गारूडविज्ज र प्राहु सिज्झइ ।
ऐसा ही "प्रानुरूप्य" और "अनाकुलत्व" से और "प्रतिवस्तूपमा" से पुष्ट " लोकोक्ति" के रूप में विन्यास का संयोजन तब दीख पड़ा है जब कथा के विस्मयकारी मृत्यु सम्बन्धी घटना का विधान हुआ है -
विशिष्ट तथा "प्रश्नोत्तर ", "ललित" एक प्रसादगुण युक्त रमणीय वाक्यएक अत्यन्त शक्तिशाली पात्र की
किह कुलिस वि घुर्णोह विच्छिण्णउं, तुज्भु वि मरणु केव संपण्डं ।
. 76.3. 5-10
सीयादेवि देव दीहुण्ह गीससंती । सुंरह तुह पयाई भत्तारभत्तिवंती । सिरि व उविदह, सरि व समुदहु । मेत्ति व रोहहु, मोरि व मेहहु । भमरि व पोमहु, संति व सामहु । करिरिग व पोलुहि, करहि व विउति व छेयहु, हरिरिग ववरणकंत जेव
पीलुहि ।
व
गेयहु ।
वसंत |
सुनरइ कोइल, जिगुण जागs, तिह
हमारा कवि "कांति" और " यमक" से पुष्ट "बिंब - प्रतिबिंबोपमा" के रूप में प्रौढोक्तिसिद्ध एक विस्तृत संदर्भ तब संघटित करता है, जब वह अपने एक पात्र की विरह दशा की सूचना देने में प्रवृत्त होता है -
धीरतें इल । तुह जारणइ ।
म. 78.24.12
74.1. 1-10
ऐसे ही उसने "विचार्यमाण चमत्कार",
"उपचार", " श्लेष गुण", और
“वासवीय समाधि गुण” से विशिष्ट तथा “सभंग " यमक " मध्य- श्रुत्यनुप्रास", "श्लेष”, "लोकोक्ति” और उपमा से पुष्ट "सांगरूपक" के रूप में एक मुद्रा चित्र का निर्माण तब किया है जब वह " उल्वरण" एवं " समासबहुला" पदावली में अपने प्रमुख पात्र के प्रोजपूर्ण मन और अलंकृत शरीर के वर्णन में समुद्यत हुआ है
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