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जैनविद्या
लोभी जीव
रिणु मग्गमाण हि डंति पुरे, जरणरंजणु पत्तु करेवि करे । froated पूयफलु खंति किह, एक्केण जि रवि श्रत्थव जिह ॥ पंचिदित्थु सुहँ खंचियउं, लुर्द्धाहि श्रप्पारणउ वंचियउ । जरची रशियासरण फरुससिर, दालिद्दिय सधरण वि किविण गर ।।
ग वियारus ढुक्कन्ती रियs, रिगयहत्थहु हत्थु रग पत्तियइ । बंधइ मेल्लइ पुणु पुणु मवइ, वसु गुज्झपवेसह पुणु ठवइ ॥ सासट्ठि र पूरइ किह भरमि, मरिण जूरइ काइं दद्दव करमि । लोहिट्ठट्ठ पाविट्ठ चलु, पाहुणयहु उत्तरु देइ खलु ॥ घत्ता - गेहिरिए गय गामहो इच्छियकामहो मणु णं भल्लिइ भिज्जइ । मज्झ वि दुक्ख सिरु तुहुँ श्रायउ घर भणु एवह कि किज्जइ ॥
अर्थ - लोभी जीव लोगों को रंजित करनेवाले पात्र को हाथ में लेकर नगर में उधार माँगता हुआ घूमता रहता है । वह सड़ी हुई सुपारी भी इस प्रकार खाता है कि उस एक ही सुपारी से सूर्य अस्त होजाय । लोभी जीव अपने को पाँचों इन्द्रियों के सुखों के भोग से समर्थ होते हुए भी वञ्चित रखता हैं । जीर्ण कपड़े की लंगोटी धारण करनेवाला और कठोर सिरवाला ऐसा जीव धनी होते हुए भी दरिद्री होता हैं । वह आती हुई नियति को नहीं जानता और अपने एक हाथ से दूसरे हाथ का भी विश्वास नहीं करता । वह अपने धन को बार-बार बाँधता है, रखता है, गिनता है और गुप्तस्थान में रखता है। वह कहता हैहा दैव ! साठतो पूरे ही नहीं होते, क्या करू ? ऐसा विचारते हुए वह मन में बड़ा दुःखी रहता है । वह लोभी, दुष्ट, पापिष्ठ और चञ्चल जीव अपने घर
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अतिथि को इस प्रकार उत्तर देता है - " घरवाली गाँव गई है । मेरा इच्छित काम मन मानो भाले से भिद रहा है, मेरा तो सिर दुख रहा है और तुम घर आये हो, बताओ ऐसे समय मैं क्या करू ?" - महापुराण : 19.2.