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महाकवि पुष्पदंत
द्वारा रचित महापुराण की बिम्ब-योजना
-- डॉ० गदाधरसिंह
काव्य-बिम्ब पश्चिमी आलोचना-शास्त्र का मेरुदण्ड है। पश्चिमी आलोचकों ने इसका इतना सूक्ष्म एवं विस्तृत विश्लेषण किया है कि उनकी सम्पूर्ण चेतना ही बिम्ब से परिव्याप्त हो गयी है । "डाइडन" ने विम्ब को कविता की उत्कृष्टता का मापदण्ड ही नहीं अपितु उसका प्राणतत्त्व स्वीकार किया है। "एज़रापाउण्ड" ने तो यहाँ तक कह दिया है - "बड़े-बड़े पौथे लिखने की अपेक्षा जीवनभर में केवल एक बिम्ब की रचना करना कहीं बेहतर है।" । पश्चिमी पालोचकों की धारणा है कि बिम्ब के माध्यम से ही कवि प्रात्म-विवृति करता है, अपने भावाविष्ट क्षणों को प्रोद्भासित करता है। युग की धारणा के अनुसार काव्य के मानदण्ड मूल्य आदि बदलते रहते हैं पर बिम्ब एकरूप रहता है। रचयिता के सर्जनात्मक क्रिया-व्यापार का अर्थ है - बिम्ब । “वर्ड्सवर्थ" ने कविता को मनुष्य और प्रकृति का बिम्ब कहा है -
Poetry is the image of man and nature.
प्रारम्भ में "इमेज" शब्द का प्रयोग स्थूल रूप में प्रतिकृति आदि किया गया था। वह भारतीय अलंकार-शास्त्र के रूपक विधान की तरह था किन्तु बाद में उसे मनोवैज्ञानिक रूप प्रदान किया गया । काव्य-बिम्ब के विशेषज्ञ "लेविस" ने इसके सम्बन्ध में कहा - "काव्य-बिम्ब एक प्रकार का भावगर्भित शब्द-चित्र है।"