Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 66
________________ 60 जैन विद्या और ऐसा ही एक " यमक" तथा "विचार्यमाण - चमत्कार" से का संयोजन वह युद्ध के लिए निर्गत अपने एक पात्र के वर्णन के उपक्रम में करता है - पुष्ट रंग - चित्र वीसइ गीसरंतु रइयाहउ, अंजरग गिरिकरिवरि थिउ राहउ । गं गवजलहर सिहरि ससंकउ, णं श्रइरावइ इंदु प्रसंकउ । गं जसु तिजगसिहरि पंडुरतणु, धम्मालोयलीणु मुणिमणु । कयसरसोहउ गाइ मरालउ, सूरपहाहरु गाइ मरालउ । सीयाकंरवर विरहुण्हें हउ दारणालित्तपारिण णं दिग्गउ । म० 78.3. 4-8 उसने एक अन्य स्थान पर रंग वैभिन्य को भी " मूर्तामूर्त" " उक्त विषया वस्तुत्प्रेक्षामाला " का विषय बनाया है यथा रेहति वे वि बलएव हरि, गं तुहिरणगिरिदंज रिसिहरि । गं गंगाजउरगाजल पवह, गं लच्छिहि कोलार मरण वह । गंपुण्ण मरणोरह सज्जरणहं, गं बम्मवियारण दुज्जरहं । म० 69.13 1-3 पुष्पदंत ने "समता", "कांति" और "अर्थव्यक्ति" गुण से विशिष्ट तथा "श्रुत्यनुप्रास" पुष्ट "दीपक" के रूप में एक सुन्दर कल्पना-चित्र की उद्भावना तब की है, जब वह तथ्य विश्लेषण की ओर बढ़ा है - गुणसणु प्रप्यपसंसरणउं तवदसणु मिच्छावं सरगउं । गडदूसणु गीरसपेक्खरणउं, कइदूसणु कथ्व प्रलक्खरणउं । घरणदूसणु सःखलयरणभरणु, वयदूसणु श्रसमंजस मरणु । इस खरभासिणि जुबइ, सुहिदूसणु पिसुणु विभिण्णमइ । सिरिदूसणु जड़ सालसु रिगवइ, जरणदूसणु पाउ पत्तकुगइ । गुरुसणु गिक्का र रहसणु, मुणिदूसणु कुसुइससमन्भसणु । ससिस मिगमलु मसिकसणु, कुलदूसणु रणंदणु दुव्वसणु । म० 69.7. 2-8 और अन्यत्र वह "प्रोज गुण" तथा "प्रश्नोत्तर" से पुष्ट " प्रतिवस्तूपमा माला " के रूप में एक उत्कृष्ट कल्पना - चित्र का निर्माण तब करता है, जब वह अपने एक पात्र की "असूयावृत्ति" को उभारने में प्रवृत्त होता है - सरह सीह को वरिण संधारइ, काल कयंत बे वि को मारइ । चंद सूर को खलइ हंगरिंग, हरि बल को रिहाइ समरंग रिण । केसरिकेसछड़ा को छिप्पर, जारगइ केरण गराहिव हिप्पइ । o 71.3. 6-8 उसने "यमक", "अतिशयोक्ति" और "लोकोक्ति" से पुष्ट अपहनुति के रूप में एक मौलिक चित्र की उद्भावना तब की है जब उसका एक पात्र अपने वाक्कौशल से अपना समर्थन करता है -

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