Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 54
________________ जैनविद्या सहज मनोहर प्रतीत होता है । छन्दोविधान की विशिष्टता के कारण ही इस महाकाव्य की काव्यभाषा की अपनी प्रभविष्णुता है। काव्य में भाषा के सभी अंगों - वर्ण, शब्द, मुहावरा, वाक्य यहाँ तक कि विराम आदि चिह्नों का भी उपयोग होता है अतएव काव्य भाषा का अपना एक समग्र स्वरूप होता है। प्राचार्य प्रानन्दवर्धन और प्राचार्य कुन्तक ने काव्य में वक्रता-विधान का आरम्भ वर्ण से ही माना है । कवियों द्वारा वर्ण से उद्भूत नाद-सौन्दर्य की विविधता प्रस्तुत करने के क्रम में वर्णविन्यास वक्रता का विधान किया जाता है। थोड़े-थोड़े व्यवधान वाले एक, दो अथवा बहुत से अनुरणनात्मक एवं ध्वन्यात्मक व्यंजन वर्णों का समेकित परिगुम्फन वर्णविन्यासवक्रता का ही एक प्रकार है । अलंकारवादी इसे "अनुप्रास" कहते हैं। इस संदर्भ में “महापुराण" का एक उदाहरण द्रष्टव्य है - तडि तडयडइ पडइ रुंजइ हरि, तरु कडयडइ फुडइ विहइ गिरि । (14.9) . काव्यभाषा में क्रियावाचक विशेषणों का समान महत्त्व है। इनके प्रयोग द्वारा कवि अपनी भाषा में प्रायः नवीनता की सृष्टि के लिए सचेष्ट रहता है क्योंकि नवीनता । की सृष्टि ही भाषिक वक्रता का मूलोद्देश्य है । काव्यभाषा में नवनिर्मित विशेषण शब्दों का विशेष मूल्य होता है । महाकवि पुष्पदंत द्वारा प्रस्तुत इसका एक उदाहरण इस प्रकार है "अंकुरियउ कुसमिउ पल्लविउ महुसमयागमु विलसइ ।" (28.13) यहाँ मधु समयागम (बसन्तागम) का नाम धातुमूलक क्रिया-विशेषण (अंकुरित, कुसुमित और पल्लवित) का वक्रताजनित सौन्दर्य ध्यान देने योग्य है। ___ इसी प्रकार, अनेकार्थक या पर्यायवाची शब्दों का उपयोग भी काव्यभाषा के लिए आवश्यक होता है । इस सन्दर्भ में महापुराण से उद्धृत एक-एक उदाहरण - खग्गे मेहें कि णिज्जलेण, तरुणा सरेण किं णिप्फलेण । (57.7) इस अवतरण में "निर्जल" (णिज्जलेण) और "निष्फल" (रिणप्फलेण) शब्द की अर्थभिन्नता ध्यान देने योग्य है। जल सामान्य अर्थ - पानी, विशिष्ट भिन्न अर्थ - तलवार की धार । फल सामान्य अर्थ - पेड़ का फल, विशिष्ट विभिन्न अर्थ - तीर की नोक। । इसी प्रकार, दूसरा उदाहरण पर्यायवाची शब्द के प्रयोग का - मुहं मुखहि चंदें समु भरणमि जइ तो कवणु कइत्तणु। 54.1 कुवलय बंधु वि णाहु णउ दोसायर जायउ। 69.11 इन दोनों अवतरणों में "चन्द्र" और उसके पर्यायवाची शब्द "दोषाकर" (दोसायरु) ध्यातव्य हैं । चन्द्र से चाँदनी की धवलिमा और दोषाकर से रात्रि के गहन अन्धकार की अनुभूति होती है । अप्रस्तुतयोजना भी काव्यभाषा की अनिवार्यता है । महाकवि पुष्पदंत के प्रकृतिवर्णन में इसकी प्रयोगभूयिष्ठता दृष्टिगत होती है। उनके भाव और वस्तुबोधक अप्रस्तुत अन्तर प्रभावसाम्य या फिर उपमेय और उपमान के बीच रूपसाम्य से प्रतीकित हैं जिनकी

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