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जैन विद्या
सुरक्षित रमणीयता ही सर्वोत्तम विशेषता है । इस सन्दर्भ में गंगानदी का कोमल बिम्बमूलक प्रस्तुत विधान द्रष्टव्य है -
भसरणयरणी विन्भमरणाहिगहिर, रणवकुसुमविमीसियभमरचिहुर | मज्जंतकुं भिकुंभत्थरगाल,
सेवाल रगीलणेत्तंचलाल । तडविडविग लिय महुघुसिर्गापंग, चलजलभंगावलिवलितरंग । सियघोलमार्गांडडी रचीर,
पवणुद्ध यता रतुसारहार । 12.8
अर्थात् “मत्स्य-रूप नयनोंवाली, श्रावर्त्त-रूप गंभीर नाभिवाली, नवकुसुमगुम्फित भ्रमर-रूप केशपाशवाली, स्नान करते हाथियों के गण्डस्थल के समान स्तनोंवाली, शैवाल• रूप नील चंचल नेत्रवाली, तट पर खड़े पेड़ों से गिरे मधु-कुंकुम से पीत वर्णवाली, चंचल जलतरंग - रूप त्रिवलिवाली, बहते हुये फेन रूप श्वेत वस्त्रवाली तथा पवन कम्पित शुभ्र तुषार . रूप द्वारवाली गंगा बड़ी शोभा - शालिनी प्रतीत होती है ।
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यहाँ गंगा नदी में अप्रस्तुत शृंगारमयी नवयौवना नायिका की बिम्बात्मक और सौन्दर्य-मण्डित प्रस्तुति सचमुच अतिशय हृदयावर्जक है ।
इसी प्रकार, पूर्णिमा चन्द्र पर कुत्ते का भौंकना : “भुक्कड छरणयंदहु सारमेउ" (1.8), सोते सिंह को जगाना : "उट्ठाविउ सुत्तर सीह केरा” (12.17 ) श्रादि मुहावरों का प्रयोग भी " महापुराण" की काव्य-भाषा का आकर्षक भाषिक उपादान है ।
काव्यभाषा की वाक्य रचना में कवि राजशेखर सम्मत " प्रवृत्ताख्यात" नामक वाक्य वक्रता का अतिशय महत्त्व है । इसमें एक ही क्रिया की भिन्न कर्ताओं के साथ प्रवृत्ति होती है । " महापुराण" में इस प्रकार की प्रयोगवक्रता का प्रचुर समावेश हुआ है । इस सन्दर्भ में नदी और सेना के तुलनामूलक प्रसंग का एक उदाहरण -
सरि छज्जइ संचरंतझर्साह,
बलु छज्जइ करवालह झर्ताह ।
सरि छज्जइ चक्कहि संगर्याह,
बलु छज्जइ रहचक्कहिँ गर्याह । 15.12
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इस प्रकार, "महापुराण" की काव्यभाषा के संक्षिप्त निदर्शन से स्पष्ट है कि इसमें भाषिक वक्रता के साथ ही रूपकात्मकता, प्रतीकात्मकता, बिम्बात्मकता, रागात्मकता आदि काव्यभाषा के समस्त सौन्दर्यमूलक तत्त्वों का विनिवेश बड़ी चारुता के साथ हुआ है । फलत: महाकवि पुष्पदंत के इस महाकाव्य की सहज कोमल गरिमामयी काव्य-भाषा विलक्षण है जो गहनतम मानवीय अनुभवों को सम्प्रेषित करने में ततोऽधिक समर्थ है ।