Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 51
________________ जैनविद्या 45 ज्ञातव्य है, काव्य के अनेक तत्त्वों में भाषा का अन्यतम स्थान है इसलिए भारतीय कवियों ने अपने काव्यों में भाषा के महत्त्व पर अधिक ध्यान दिया है और जिन्होंने ऐसा नहीं किया, उनके काव्य सम्प्रेषणीय नहीं बन सके । इसलिए, गोस्वामी तुलसीदास ने अपने जनकाव्य "रामचरितमानस" में रस और छन्द के पहले वर्ण और अर्थसंबंध को ही मूल्य दिया है। महाकवि पुष्पदंत ने भी काव्यरचना-प्रक्रिया में भाषिक ज्ञान को महत्त्व देते हुए संस्कृत और प्राकृत भाषाओं की शिक्षा के साथ ही अपभ्रंश भाषा की शिक्षा पर भी बल दिया है । (द्र. महापुराण, 5.18)। अतएव, कहना न होगा कि भाषा ही काव्य है और काव्य भी किसी-न-किसी रूप में भाषा ही है। अर्थात् काव्य और भाषा में अविच्छिन्न अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। काव्यशास्त्रियों ने भी भाषा को ध्यान में रखकर शब्द और अर्थ के नित्य सम्बन्ध को काव्य कहा हैं । काव्य और भाषा, दोनों ही जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिम्ब होता है। प्रत्येक भाषा की वचोभंगी, नाद और गुण उसके बोलनेवालों की प्रकृति के अनुरूप होते हैं । बोलनेवालों की उग्र और कोमल प्रकृति के अनुसार ही भाषा का स्वर भी उग्र और कोमल होगा । उदाहरणार्थ “महापुराण" की काव्यभाषा के सन्दर्भ में, रावणवध के बाद पतिगतप्राणा मन्दोदरी के विलाप में करुणा-कोमल भाषिक स्वर की अनुभूति स्पष्ट है - पई विणु जगि दसास जं जिज्जइ, तं परदुक्ख समूहु सहिज्जइ। हा पिययम भरणतुं सोयाउरु, कंदइ हिरवसेसु अंतउरु। 78.22 भाषा की शैली से ही कवि की प्रकृति और व्यक्तित्व का निर्धारण होता है । अंग्रेजी की उक्ति प्रसिद्ध है - "स्टाइल इज द मैन"। कोई भी कवि के तत्त्व, भाव यहाँ तक कि साहित्यिक अवधारणाएँ भी परम्परा से ही प्राप्त करता है। केवल भाषा ही एक ऐसी वस्तु है, जो उसे पारस्परिक उत्तराधिकार में नहीं प्राप्त होती, अपितु वह उसकी स्वयं की निर्मित होती है । इसलिए, एक ही रीति में लिखनेवाले कवियों की भाषाएँ भिन्न हो जाती हैं। कवि को भाषा से संघर्ष करना पड़ता है, तभी वह उसका कायाकल्प कर पाता है। महाकवि पुष्पदंत के “महापुराण" में इस प्रकार के भाषिक कायाकल्प के अनेक अनुपम संदर्भ उपलब्ध हैं । भाषिक कायाकल्प का तात्पर्य प्रयोग की अभिनवता से है । "मेघदूत" में कालीदास ने उज्जयिनी वर्णन-क्रम में उसे “कान्तिमान् स्वर्गखण्ड" कहा है । पोतननगर के चित्रण-क्रम में इसी रीति का वर्णन महाकवि पुष्पदंत की भाषा में भिन्न हो गया है। यथा तहिं पोयण णामु एयर अस्थि वित्थिण्णउं । सुरलोएं गाइ घरणिहि पाहुड़ दिण्णउं ॥ (92.2) ' अर्थात् पोतननगर इतना विस्तीर्ण, समृद्ध और सुन्दर था, मानो सुरलोक ने उसे पृथ्वी के लिए भेंट दी हो।

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