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जैनविद्या
प्राद्य
नव
सभी स्थितियों में यह प्रवृत्ति है - नन्दन
णंदण नीरसु
पीरसु
रणव मध्य महानुभाव
महारणभाव जिननाथ
जिणणाथ अन्त्य धन
धरण दीन
दीणु 1.2.6 व्यंजन-लोप
प्राकृतों से ही व्यंजन-लोप की प्रवृत्ति बढ़ गई थी जिसमें अपभ्रंश काल तक आते-आते स्थिरता आ गई। मध्य तथा अन्त्य व्यंजन के लोप की प्रवृत्ति विशेष दृष्टिगत होती है - 1.2.6.1 मध्य व्यंजन-लोप
जोगिनि
जोइणि ..
गोउलु जमुना
जउरणा अतिशय
अइसइ 1.2.6.2 व्यंजन-लोप के बाद य-श्रुति का प्रागम . .. 1.2.6.2.1 - : मध्य स्थिति नगर
रगयर माकंद
मायंद वचन
वयण नागर
गायर दिवाकर - दिवायर अन्त्य -
शोय घात
घाय
(आज भी घाव रूप भी चलता है।) अभिषेक
अहिसेय 1.2.7 "य" के स्थान पर "ज"
गोकुल
शोक
BEEEEEEEEEEEEE
जुयल
युगल यशोद
जसोय
1.2.8 'ज" के स्थान पर "य"
निज-
निज--
-
रिणय
जणू
यण