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जैनविद्या
अभिषेक विष वेष .
अभिसेय विस
-
वेस
दिशि
दिसि
विशेष
विसेस
1.2.2 "र" के स्थान पर "ल" "र" और "ल" का परस्पर विपर्यय तो वैदिक काल से ही चला आ रहा है -
निहारी - णिहालउ भ्रमर दारिद्र - दालिदु
भमलु
1.2.3 घोषीकरण की प्रवृत्ति
जूट
-
जूड
1.2.4 "प" के स्थान पर "व"
इस प्रवृत्ति की अोर हेमचन्द्र ने भी पर्याप्त ध्यान दिया है। पैशाची की विशेषताएँ बताते हुए शालिग्राम उपाध्याय लिखते हैं, “इस भाषा में "प" का या तो लोप हो जाता है या स्वर से परे असंयुक्त रहने पर "व" हो जाया करता है । अतः पईव (प्रदीप), पावं (पापं), उवमा (उपमा), कलावो (कलापः), कवालं (कपालम्), महिवाल (महीपाल), कविलं (कपिलं) आदि रूप मिलते हैं।" चंड ने भी अपने प्राकृत लक्षण में उपमान के लिए "पिव" इव, विव, विय, व्व, व तथा वत् का प्रयोग स्वीकार किया है । पुष्पदंत के काव्य ' में इस प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं -
गोपी - गोवी - गोवि कोऽपि - कोवि (कोई भी मिलता है)
1.2.5 मूर्धन्यीकरण की प्रवृत्ति
णकार बहुला इस भाषा में मूर्धन्य ध्वनियों का प्राधिक्य होना स्वाभाविक ही है। इस प्रवृत्ति के कारण बहुत से व्यक्ति तो इन अपभ्रशों को "गाउ गाउ" भाषा कहकर पुकारते हैं । णकार का बाहुल्य आज भी एक ओर हिन्दी की बांगड़, मेरठी आदि बोलियों में दूसरी ओर आधुनिक आर्य भाषाओं - उड़िया, मराठी आदि में परिलक्षित होता है।
1.2.5.1 "रण" के स्थान पर "रण" मिलता ही है पर "न" के स्थान पर भी "रण"
भुवन - भुवण पुनि - पुणि - पुणु