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जैनविद्या लिए है । खेद है यहाँ भी कितने ही नीम-हकीमों ने शुद्ध संस्कृत "माता" को ही नहीं लिया बल्कि उसमें "जी"लगाकर "माताजी" बना उसके ऐतिहासिक माधुर्य को ही नष्ट कर डाला । अस्तु, यह निश्चित है कि अपभ्रंश होना दूषण नहीं भूषण था।"
प्रारंभिक हिन्दी के इस आदि रूप उत्तरकालीन अपभ्रंश का प्रतिनिधित्व करनेवाले महाकवि पुष्पदंत क्रान्तदर्शी थे जिनके द्वारा एक ओर बाण की श्लेष शैली (जिसमें पदयोजना, अलंकारादि प्राचीन परिपाटी पर हैं) तो दूसरी ओर भाषा का अपेक्षाकृत चलता हुआ जनसाधारण में प्रचलित रूप अपनाया गया। डॉ० हरिवंश कोछड़ ने पुष्पदंत को अपभ्रंश-साहित्य का सर्वश्रेष्ठ कवि मानते हुए लिखा है - "पुष्पदंत को अपभ्रंश-साहित्य का सर्वश्रेष्ठ कवि कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। पुष्पदंत की प्रतिभा का मूल्य इसी बात से प्रांका जा सकता है कि इनको अपने महापुराण में एक ही विषय स्वप्न-दर्शन को चौबीस बार अंकित करना पड़ा।"
अपनी विनम्रता में पुष्पदंत ने यहां तक कह दिया कि"गउ हउँ होमि वियक्खणु ण मुणमि लक्खणु छंदु देसि ण वियामि।"
__ महापुराण 1.8.10
न तो मैं छन्दशास्त्र के नियमों को भलीभाँति जानता हूँ और न मैं इस विलक्षण देसी भाषा का जानकार हूँ।
विद्वानों ने अपभ्रंश के अनेक भेद किये हैं। डॉ० तगारे ने "अपभ्रश का ऐतिहासिक ध्याकरण" शीर्षक प्रबन्ध में तीन भेद स्वीकार किये हैं -
1. दक्षिणी अपभ्रंश 2. पश्चिमी अपभ्रंश 3. पूर्वी अपभ्रंश
दक्षिणी अपभ्रंश के अन्तर्गत पुष्पदंत तथा कनकामर की कृतियाँ सम्मिलित होती हैं। पुष्पदंत ने इसी अपभ्रंश में अपने ग्रथों की रचना की पर हस्तलिखित ग्रंथों की प्रतिलिपि गुजरात में होने के कारण पश्चिमी अपभ्रंश की झलक उसमें यत्र-तत्र समाहित हो गई है । पुष्पदंत की कृतियों का विवरण इस प्रकार है - समय स्थान
वर्तमान स्थिति 1. महापुराण 965 ई० मान्यखेट मालखंड (निज़ाम राज्य, आन्ध्रप्रदेश) 2. जसहरचरिउ 965-972 , 3. णायकुमारचरिउ , , .
सभी नथ दक्षिण में लिखे होने के कारण दक्षिणी अपभ्रंश से संबंधित रहे । हस्तलिखित प्रतियाँ राजस्थान के नागौर, बूंदी, कामा, ब्यावर, श्रीमहावीरजी, जयपुर के जैन भण्डारों में मिलती हैं।