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जैन विद्या
1.2.10.3 दो भिन्न ध्वनियों के स्थान पर एक ध्वनि
भमंतु
बीसमइ
पिय
भ्रमंतु
विश्राम
प्रिय
1.2.10.4 एक गुच्छ के स्थान पर सर्वथा दूसरा गुच्छ
स्नान
कृष्ण
स्न
ཞཱ ྂ 4 ལྐ 8 | ཕ1 ལྷ ཤྲཱཀཱ
न्य
ज्ञ
त्स
र्भ
भ्य
}
क्ष
ण्ह
ण्ण
}
ट्ठ
च्छ
च्छ
ख
ब्भ
प्फ
1.2.10.5 स्वरागम या स्वर-भक्ति के कारण गुच्छ टूट जाते हैं
श्री - सिरि ( शिर का भी रूप सिरि ही मिलता है )
क्ख
शून्य निःस्नेह
अज्ञाने
2. अन्य विशेषताएँ
2.1 उकार बहुला प्रवृत्ति
घृष्ट
गोष्ठ
1.2.10.6 एक ध्वनि के स्थान पर कई गुच्छ तथा एक ध्वनि
"
वत्सर
गर्भ
अभ्यागत
पुष्प
-
हारण
कण्ह
कुक्षि
क्षीर
रक्षति
सु रिगणेण
अण्णा
एक ही पंक्ति में देखिये - उब्बद्ध - जूडु
घुट्ठ
गोट्ठि
वच्छर
गब्भ
अब्भागय
पुप्फ
( वर्तमान में नहान )
( वर्तमान में कान्ह )
( सिणेह रूप भी )
शब्दों के अन्त में उकार की प्रवृत्ति अपभ्रंश की एक प्रमुख विशेषता है जिसका
बाहुल्य आज भी ब्रजभाषा में है -
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कुच्छि
खीर (हिन्दी में भी अर्थ - भेद से चलता है । ) रक्खसि
भू-भंग-भी
तोडे प्पिंणु चोsहोतँउ सीसु ।
“य” तथा “व” के स्थान पर भी "उ" व्यवहृत होता था -
राव - राउ, अन्याय
अण्णा उ
2.2 दसवीं शताब्दि तक आते-आते तद्भव शब्दावली के रूप बहुत कुछ स्थिर हो गये थे जिनसे मिलते-जुलते रूपवाले शब्द आज भी प्रचुर मात्रा में लोक में प्रचलित हैं
कज्जु (काज), अज्ज (आज), तुज्भु ( तुझे ), दीवय ( दीवा ), तंब (तांबा), मुम्ग (मूंग), बग्घ (बाघ), मोत्ति (मोती), सोहग्ग ( सुहाग ), खेतु (खेत ) हत्थि,