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पुष्पदंत की भाषा
- डॉ० कैलाशचन्द्र भाटिया
उत्तरकालीन अपभ्रश का जो रूप पुष्पदंत के काव्य में दृष्टिगत होता है उसके सम्यक् विवेचन से यह तथ्य स्पष्टतः सामने आता है कि आधुनिक आर्य भाषाओं के प्रारंभिक रूप का विकास जिस भाषा-रूप से हुआ उससे वह कितना निकट है। इस दृष्टि से अपभ्रंश-धारा में पुष्पदंत का स्थान अद्वितीय है । पुष्पदंत ने अपने महापुराण में संस्कृत और प्राकृत के साथ-साथ अपभ्रंश का भी स्पष्ट उल्लेख किया है -
सक्कउ पायउ अवहंसउ वितउ उप्पाउ सपसंसउ ।
संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश
महापुराण 5.18.6 अपभ्रश का हिन्दी से क्या संबंध ? इस प्रश्न पर विचार प्रकट करते हुए महापण्डित राहुलजी ने "हिन्दी काव्यधारा" की भूमिका में लिखा है - "इस भाषा को अपभ्रंश कहते हैं, शायद इससे आप समझने लगे होंगे कि तब तो यह हिन्दी से जरूर अलग भाषा होगी। लेकिन नाम पर न जाइये, इसका दूसरा नाम "देसी" भाषा भी है। अपभ्रंश इसे इसलिए कहते हैं कि इसमें संस्कृत शब्दों के रूप भ्रष्ट नहीं, अपभ्रष्ट - बहुत ही भ्रष्ट हैं इसलिए संस्कृत पंडितों को ये जाति-भ्रष्ट शब्द बुरे लगते होंगे। लेकिन शब्दों का रूप बदलते-बदलते नया रूप लेना-अपभ्रष्ट होना - दूषण नहीं भूषण है, इससे शब्दों के उच्चारण में ही नहीं अर्थ में भी अधिक कोमलता, अधिक मार्मिकता आती है। “माता" संस्कृत शब्द है, उसके "मातु","माई" और "मावो" तक पहुंच जाना अधिक मधुर बनने के