________________
20
- जैनविद्या
(मुजामों) को उठाकर अवमानना व्यंजित करता है कि नारी-रत्न का मरण हो रहा है। कानों के पास पाकर भौंरा गुनगुना रहा है, मानो कह रहा है कि स्वामिन् ! यह कार्य अयुक्त है, अयोग्य है। रावण परस्त्री के रमण-सुख का अभिलाषी है। (यह जान कर) शुक टेढ़ा मुंह करके चला जाता है, मानो वह भी राजा पर प्रकुपित है, उद्विग्न है। कोयल तो विलाप करती हुई वहां जा पहुंची (और बोली) - यदि तुम अपनी अपकीर्ति चाहते हो तो पूज्य वैदेही से रमण करने का साहस करना। हंसावली यह कहती है कि आपकी कीर्ति हमारे समान श्वेत तथा लोकप्रिय है, इसलिए इसे मैला मत करो और न लंकापुरी की लक्ष्मी का नाश करो। उस समय लाल-लाल पल्लवोंवाला सुन्दर आम्रवृक्ष ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वह राजा के अन्याय की अग्नि में जल गया हो। चन्दन वृक्ष लिपटे हुए विषधरों को दिखला रहा है, मानो प्रतिपक्ष के मान को स्थापित कर रहा हो (महापुराण 72. 8. 1-11)।
महापुराण महाकाव्य क्या है, मानो प्रकृति का प्रांगन है। इसमें संचरणशील पात्र सभी प्रकृति के परिवार के हैं। इसलिए पात्र तथा प्रकृति की क्रिया-प्रतिक्रियाएं अभिन्नरूप से अंकित लक्षित होती हैं। लंका में सीतादेवी के पूछने पर विद्याधरी उत्तर में कहती । है - जिसका कोतवाल यम कहा जाता है, प्रतिदिन कुबेर जिसे धन देता है, युद्ध में इन्द्र भी जिससे थर-थर कांपता है, पवन जिसके घर का कचरा निकालता है, अग्नि जिसके वस्त्र धोती है, जिसका नाम लेते ही दिग्गज-वृन्द मद छोड़ने लगता है, सरस्वती जिसके आगे नृत्य करती है, वनस्पतियाँ जहाँ कुसुमांजलि प्रक्षिप्त करती हैं, मेघ जिसके आँगन में छिड़काव करता है, विश्व में जिसका प्रतियोद्धा अन्य कोई नहीं है वह इस लंका का स्वामी है । त्रिभुवन का विजेता उसका नाम रावण है । (महापुराण 72. 10. 4-9)। . अनेक मार्मिक प्रसंगों की संयोजना से उक्त महाकाव्य भरपूर है। जिस समय राम को सीतादेवी के अपहरण का पता चलता है, उस समय का दृश्य अत्यन्त करुण है । महाकवि पुष्पदंत ने “महापुराण" की तिहत्तरवीं संधि का प्रारम्भ ही सूर्यास्त से किया है । सम्पूर्ण संधि प्रकृति की रंगशाला ही प्रतीत होती है। यथार्थ में मानवीय संवेदनाओं के कुशल चित्रकार बिम्ब-विधान में अनुपम, प्रतीक-संयोजना में सफल, प्रकृति की पृष्ठभूमि में मानवीय चेतना का सजीव वर्णन करने में रससिद्ध कवि तथा प्रकृति की सूक्ष्मसंवेदनाओं को मानवीय धरातल पर अंकित करनेवाले विविध रंगों की चित्रशाला में सौन्दर्य का सफल अंकन भावालम्बन के रूप में अभिव्यंजित करनेवाले महाकवि पुष्पदंत उत्तर तथा दक्षिण भारत के मध्य देशी भाषा का सेतु निर्माण कर शास्त्रीय परम्परा को बहुआयामी रूप प्रदान करनेवाले कलाकार हुए।
काव्य-जगत् में वासना तथा संवेगों की परम्परा में शब्द-चित्रों की संयोजना आवश्यक मानी जाती है। कुछ समीक्षक भाव तथा चिन्तन को एक जटिल रूपयोजना मानते हैं । बिम्ब के निर्माण में इसी प्रक्रिया की अन्विति मानी जाती है। क्योंकि बिम्ब का स्वरूप गठन करनेवाले मूल तत्त्व हैं - (1) अनुभूति, (2) भाव, (3) आवेग और (4) ऐन्द्रियता।