Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 25
________________ जैनविद्या यदि वन भ्रमरों से प्रालिंगित है, तो सीता का यौवन सुख से प्रालिंगित है । वन यदि अलक-तिलक वृक्षों से युक्त है, तो सीता का यौवन अपने बलभद्र पति से संयुक्त है । वन में शोक वृक्ष विकसित लक्षित हो रहें हैं। सीता का यौवन अपने लिए सुखदायी, पर अन्य के लिए खेद जनक है । यदि वन साँपों से दुर्गम परिलक्षित होता है, तो सीता का यौवन अन्तःपुर की प्रतिहारियों से संरक्षित व दुर्गम है । 19 महाकवि पुष्पदंत के " महापुराण", "जसहरचरिउ" तथा " गायकुमारचरिउ" इन काव्यों में प्रकृति का वर्णन भाव आलम्बन से भरित परिलक्षित होता है । कवि जब मन:स्थिति विशेष की पृष्ठभूमि के रूप में अथवा मनोभाव से निरपेक्ष होकर पात्रविशेष की मनःस्थिति को अभिव्यंजित करता है, तब प्रकृति भाव- प्रालम्बन के रूप में अभिव्यक्त होती है । संस्कृत के काव्यों में इस प्रकार का प्रकृति का भाव आलम्बन रूप कम है और जो चित्र हैं उनमें प्रकृति अनुकूल स्थिति में ही है - वह कभी पात्र का स्वागत करती जान पड़ती है और कभी छिपे हुए उल्लास की भावना व्यंजित करती है । कालिदास ने "रघुवंश" में और भारवि ने “किरातार्जुनीय" में कुछ ऐसे प्रकृति के रूप दिये हैं । किन्तु अपभ्रंश के काव्यों में जहाँ प्रकृति अनुकूल स्थिति में नहीं है, वहाँ भी कवियों अंकन किये हैं । महाकवि पुष्पदंत के काव्यों में प्रकृति के सभी प्रकार लक्षित होते हैं । जिस समय रावण माया से राम का रूप धारण कर मृग- शावक को लेकर सीता के पास पहुँचता है, तब सीता उस छोने को कैसे देखती है ? मानो असा दुःख का संचय हो, शरीर की विस्फुरित किरणमाला से युक्त विरह की विस्तीर्ण ज्वालावाला हो ( महापुराण 72. 5. 10-11 ) । ने सफल विम्बों के के रूप चित्रित यथार्थ में सीता देवी को अभीष्ट वस्तु मिलने पर प्रसन्नता होनी चाहिये थी, किन्तु afa प्रतिभा की कुशलता से वियोग का प्राभास नाटकीय रूप में पूर्व में ही संकेतित कर दिया। इतना ही नहीं, माया-पुरुष को नहीं जाननेवाली सीता से रावण कहता है - हे तीनों लोकों में कौन प्रिये ! वृद्ध सूर्य भी अस्तंगत हुना रक्त दिखलाई पड़ता है । कहिये, ऐसा है जो वृद्धता से जर्जर होने पर भी अर्थ में प्रासक्त नहीं होता । इन प्रकृति के संकेतपूर्ण प्रसंगों में कवि ने अपनी प्रतिभा का प्रच्छा चमत्कार प्रकट किया है। प्रकृति को भावगत आलम्बन बनाने के लिए महाकवि को किसी प्रसंग विशेष को नहीं देखना पड़ता है । केवल हर्ष - विषाद में ही वह प्रकृति को भावालम्बन के रूप में चित्रित नहीं करता, किन्तु प्रकृति को आलम्बन बनाकर आक्रोश भी प्रकट करता है । सत्ता - पुरुष के द्वारा शीलवती नारी की अवमानना होने पर कवि के भावों का प्राक्रोश प्रकृति के विभिन्न कार्य-कलापों के माध्यम से अभिव्यंजित हो उठता है । जिस समय रावण सती सीता का स्पर्श करने के लिए उसके पास पहुँचता है, तभी कवि की बाली में तीखापन आ जाता है । वह तीखे स्वरों में भत्न करता हुआ आक्रोश प्रगट करता है - इतने में परस्त्री का लोभी दुष्ट रावरण वहाँ जा पहुँचता है । क्या गाँव के कुत्ते को कहीं भी लज्जा आती है ? हे रावरण ! ( रुलानेवाला) तू दूसरे की युवती को क्यों लाया ? मानो यह कहता हुआ लाल कोंपलों से वृक्ष रो रहा है। वन मानो अपनी शाखानों

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