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जनविद्या
है- “महापुराण"' जिसके. दो भाग हैं - "आदिपुराण" एवं "उत्तरपुराण" । वस्तुतः महाकवि की इस विशिष्ट पुराण कृति का नाम - "तिसट्ठि महापुरिस गुणालंकार" है और इसमें जैन-परम्परानुसार "त्रिषष्टि शलाका पुरुषों" अर्थात् 24 तीर्थंकरों, 12 चक्रवतियों, 9 वासुदेवों, 9 बलदेवों तथा 9 प्रतिवासुदेवों की कथा का वर्णन किया गया है। डॉ० रामसिंह तोमर का कथन है - "दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में महापुराणों का स्थान बहुत ऊँचा है।" इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि पुष्पदंत प्रणीत “महापुराण" जैन मतावलम्बियों के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण रहा है।
"महापुराण" के प्रथम भाग "प्रादिपुराण" में आदि तीर्थंकर ऋषभदेव तथा प्रथम चक्रवर्ती भरत की कथा 37 संधियों में निबद्ध है, जबकि दूसरे भाग "उत्तरपुराण" में शेष तीर्थंकरों तथा उनके साथ-साथ अन्य महापुरुषों की कथाएँ हैं। "उत्तरपुराण" के अन्तर्गत ही रामकथा “पद्मपुराण" एवं कृष्णकथा "हरिवंशपुराण" सम्मिलित हैं। कुल मिलाकर "प्रादिपुराण" में 80 तथा "उत्तरपुराण" में 42 संधियाँ हैं जिनका श्लोक-परिमारण लगभग बीस हजार है । स्वयं महाकवि पुष्पदन्त ने इसे महाकाव्य घोषित किया है । उदाहरण के लिए संधियों के अन्त की एक पुष्पिका देखी जा सकती है -
"इय महापुराणे तिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे।
महाकइ पुप्फयंत विरइए महाभव्वभरहाणुमम्पिए महाकाव्ये ॥" । पौराणिकता प्रधान इस महाकाव्य में यद्यपि कथा की शृंखलाबद्धता नहीं मिल पाती, तथापि जीवन के प्रायः प्रत्येक पक्ष की पूर्ण एवं सजीव अभिव्यक्ति कवि ने प्रसंगानुकूल अवश्य की है । वस्तु-वर्णन, सौन्दर्य-चित्रण, प्रकृति-चित्रण आदि के प्रसंगों में कवि जहाँ कल्पनाशील होकर भावुक चित्र अंकित करता है, वहीं भक्ति और दर्शन के प्रसंगों में उसका गम्भीर चिन्तन-पक्ष उजागर हो उठता है। इस प्रसंग में दो उद्धरण मैं देना चाहूँगा, एक में काव्यत्व है, तो दूसरे में गम्भीर दर्शने -
"महि मयणाहिरइयरेहा इव बहुतरंग जरहय देहा इव ।" अर्थात् यमुना पृथ्वी पर मृगनाभि-कस्तूरी-रेख के समान है और उसमें उठती तरंगें वृद्धावस्था की झुर्रियों के समान हैं।
" "वियलइ जोव्वणु णं करयलजलु, रिणवडइ माणुसु णं पिक्कउ फलु।"10
अर्थात् अंजलि के जल की भाँति यौवन विगलित होता है और मनुष्य पके हुए फल की तरह निपतित होता है। - ... महाकवि पुष्पदन्त काव्य का लक्ष्य मूलतः "प्रात्मतोष" मानते हैं, धनप्राप्ति कदापि उनका लक्ष्य नहीं रहा। यह तथ्य स्वयं कवि ने प्रस्तुत किया है जब वह आश्रयदाता भरत से कहता है -
"मझ कइत्तणु जिरणपद भस्तिहि, पतरइ एउ णिय जीवियविस्तिहि ।"11 अर्थात् मेरा काव्यत्व जिनपद-भक्ति के लिए है, धन की प्राप्ति के लिए नहीं।