Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 16
________________ जैनविद्या कविश्री पुष्पदन्त के व्यक्तित्व में स्वाभिमान और विनयशीलता का एक विचित्र संगम परिलक्षित है। एक ओर वह अपने को ऐसा महान् कवि बतलाते हैं जिसकी बड़े-बड़े विशालग्रंथों के ज्ञाता और मुद्दत से कविता करनेवाले भी समानता नहीं कर सकते और सरस्वती से कहते हैं कि हे देवि ! अभिमानरत्न-निलय पुष्पदन्त के बिना तुम कहाँ जानोगी, तुम्हारी क्या दशा होगी? और दूसरी ओर वह कहते हैं कि मैं दर्शन, व्याकरण, सिद्धान्त, काव्य, अलंकार कुछ भी नहीं जानता, गर्भमूर्ख हूँ। न मुझ में बुद्धि है, न श्रुतसंग, न किसी का बल है ।15 हरिषेण कवि तो यहाँ तक कहते हैं कि पुष्पदन्त मनुष्य थोड़े ही हैं, सरस्वती उनका पीछा नहीं छोड़ती।18 बाण के बाद राजनीति का इतना उग्र पालोचक दूसरा लेखक नहीं हुआ। सचमुच मेलपाटी के उस उद्यान में हुई अमात्य भरत और पुष्पदन्त की भेंट भारतीय साहित्य की बहुत बड़ी घटना है। यह अनुभूति और कल्पना की अक्षय धारा है जिससे अपभ्रंश साहित्य का उपवन हरा-भरा हो उठा। मंत्री भरत माली थे और कृष्ण वर्ण कुरूप पुष्पदन्त कवि-मनीषी, उनके स्नेह के आलवाल में कविश्री का काव्य-कुसुम मुकुलित हुआ।17 कविकोविद पुष्पदन्त का साहित्य-सर्जन के पीछे एक निश्चित उद्देश्य रहा है। वह किसी राजा की स्तुति के लिए काव्य लिखना ठीक नहीं समझते थे । साहित्य के द्वारा धनार्जन करना भी कवि का लक्ष्य नहीं था। उन्हें तो जिनभक्ति से प्रेरित होकर ही ग्रंथों की संरचना अभिप्रेत है।18 पुष्पदन्त ने काव्य लिखने के लिए अनुभूति को प्रमुख स्थान दिया है ।10 कवि का कहना है कि जिनपदभक्ति से मेरा कवित्व वैसे ही फूट पड़ता है जैसे मधुमास में आम के बौरों पर कोयल कूक उठती है, कानन में भ्रमर मूंजने लगते हैं, कीर मानन्द से भर उठता है । ३० पुष्पदन्त ने सरस्वती वंदना करते हुए अपने काव्य सम्बन्धी विचार इस प्रकार उद्भूत किये हैं - कोमल पद, पर कल्पना मूढ़ हो, भाषा प्रसन्न और गम्भीर होनी चाहिये । कवि छंद और अलंकार को काव्य की गति का आवश्यक . साधन मानते हैं । शास्त्र और अर्थतत्त्व की गम्भीरता स्वीकारते हैं । 1 इस निकष पर कवि का काव्य खरा उतरता है। कवि बार-बार अलंकृत या रसभरी कथा की उपमा देते हैं ।" आपका आशय यही था कि कथा-निर्वाह तथा रस और अलंकार का समावेश औचित्यसम्पृक्त होना चाहिये। महापुराण, णायकुमारचरिउ 4 तथा जसहरचरिउ में सदृश उपमाएँ द्रष्टव्य हैं। वैयाकरण मार्कण्डेय ने अपने 'प्राकृत सर्वस्व' में अपभ्रंश भाषा के नागर, उपनागर और ब्राचड - ये तीन भेद किये हैं। इनमें से ब्राचड को लाट (गुजरात) और विदर्भ (बरार) की भाषा बतलाया है। प्रस्तु, पुष्पदंत की भाषा अपभ्रंश वाचड होनी चाहिये । महाकवि पुष्पदंत ने कवि-समयों तथा कथानकरूढ़ियों का प्रयोग न किया होता तो मध्ययुगीन साहित्य भी कविसमय तथा कथानकरूढ़ियों के प्रयोग से यत्किचित् अछूता ही रह जाता। पुष्पदंत-द्वारा प्रयुक्त कविसमय तथा कथानकरूढ़िसम्बन्धी प्रयोग एक आदर्श निकष स्थापित करते हैं जिससे इनकी मौलिकता का श्रीवर्धन होता है । पुष्पदंत असाधारण प्रतिभाशाली महाकवि थे। इतना ही नहीं वे विदग्ध दार्शनिक और जैनसिद्धान्त के प्रकाण्ड पंडित भी थे। कृशकाय होने पर भी कवि की प्रात्मा अत्यन्त

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