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जैनविद्या
___ 13 इस प्रकार यह चरितकाव्य रस, अलंकार, प्रकृति-चित्रण, छंदादि सभी दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।
जसहरचरिउ (यशोधरचरित)
कवि पुष्पदंत द्वारा विरचित यह चरित-काव्य चार सन्धियों में पुण्यपुरुष यशोधर की जीवन-कथा को प्रस्तुत करता है। यह कथानक जैन परम्परा में इतना प्रिय रहा है कि सोमदेव, वादिराज, वासवसेन, सोमकीर्ति, हरिभद्र, क्षमाकल्याण आदि अनेक दिगम्बरश्वेताम्बर लेखकों ने इसे अपने ढंग से प्राकृत और संस्कृत भाषामों में लिखा है। इनमें पुष्पदंत की तीसरी और आखिरी कृति 'जसहरचरिउ' सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसकी रचना कवि ने मान्यखेट की लूट के समय 972 ई० के आस-पास की थी। 7.
प्रस्तुत कथा का मुख्य लक्ष्य जीव-बलि का विरोध है। कथानक का विकास कुछ नाटकीय ढंग से होता है। समूचा कथानक धार्मिक और दार्शनिक उद्देश्यों से परिपूर्ण है । कहीं-कहीं आध्यात्मिक संकेत भी दृष्टिगत हैं। इस कृति में कवि का आदर्श ऊँचा है
और शैली उत्तम पुरुष में होने से आत्मीय है। पौराणिक काव्य की सभी रूढ़ियाँ इसमें हैं । कवि पुष्पदंत ने अपनी रचना को धर्मकथानिबद्ध कहा है ।38
'जसहरचरिउ' में वस्तु-वर्णन एवं रसपरिपाक भली-भाँति नहीं हुआ है। वर्णन प्राचीन परिपाटी के अनुकूल है । उसमें कोई नवीनता नहीं है । नाना जन्मान्तरों की ऐसी पेचीदी कहानी अपभ्रंश में कोई दूसरी नहीं है । कदलीपात सदृश इस चरित में कथा के अन्दर कथा सुनियोजित है। इस प्रकार भावोद्रेक का प्रभाव सर्वत्र परिलक्षित है तथापि ग्रंथ की भाषा वेगवती, अनुप्रासमयी, मुहावरेदार एवं अलंकृत है।
उपर्यंकित विवेचन के आधार पर अपभ्रंश भाषा के महान् कवि पुष्पदंत की रचनाओं में प्रोज, प्रवाह, रस, और सौन्दर्य का समायोजन उत्कृष्ट है । भाषा पर कवि का अधिकार असाधारण है। शब्दों का भंडार विशाल है और शब्दालंकार एवं .अर्थालंकार दोनों से ही कवि-काव्य समृद्ध है । पुष्पदंत नैषधकार श्रीहर्ष के समान ही मेधावी महाकवि थे । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो स्वयंभू और पुष्पदंत अपभ्रंश जगत् के सिरमौर हैं। स्वयंभू में यदि भावों का सहज सौन्दर्य है तो पुष्पदंत में बंकिम भंगिमा है। स्वयंभू की भाषा में प्रसन्न प्रवाह है तो पुष्पदंत की भाषा में अर्थगौरव की अलंकृत झाँकी। एक सादगी का अवतार है तो दूसरा अलंकरण का श्रेष्ठ निदर्शन 140 प्रतएव डॉ० एच०सी० भायाणी 1 ने स्वयंभू को अपभ्रश का कालिदास और पुष्पदंत को भवभूति कहा है। वस्तुतः कविमनीषी पुष्पदंत अपभ्रंश वाङमय की अमूल्य निधि हैं और जैन साहित्य इस निधि पर गर्वानुभूति कर धन्य है । 1. जैन साहित्य और इतिहास, नाथूराम प्रेमी, हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग,
गिरगाँव, बम्बई । प्रथम संस्करण 1942, पृष्ठ 301-302 2. अपभ्रंश भाषा और साहित्य, डॉ० देवेन्द्रकुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन,
दिल्ली। प्रथम संस्करण 1965, पृष्ठ 68