Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जैनविद्या
चन्द्रप्रभ स्तुति
णित्तेइयअरिवंदहु वयणचंदजियचंदहु ।।
पणविवि कुवलयचंदहु चंदप्पहहु जिरिंणदहु । ध्रुवकं । . रिणयंगरस्सीहिं तमं विणीयं, सुयंगउत्तीहि जयं विणीयं । कयं कयत्थं किर जेण णिच्चं, णमंति जं देववई वि णिच्चं । अतुच्छलच्छीहलकप्पभूयं, उदारचित्तं गुणपत्तभूयं । दयावरं पालियसव्वभूयं, गिराहिं संबोहियरक्खभूयं । ण जं पियालीविरहे विसण्णं, मुरिंग महंतं विमलं विसण्णं । विसुद्धभावं विगयप्पमायं, परं परेसं परिझीणमायं । णिहीसरं जं महियंतरायं, परज्जियाणंतदुरंतरायं ॥ . पबुद्धदुक्कम्मविवायवीलं, विइण्णदुव्वाइविवायवीलं। सुसच्चतच्चंगवियारणासं, अणंगसिंगारवियारणासं। सदित्तियाभक्खरभावहारं,
भवोहसंभूइभयावहारं। पुरंदरालोयणजोग्गगत्तं, समुज्झियाहम्मदुपंकगत्तं । णिवारियप्पव्वहसेलपायं, फरिणदचूड़ामणिघट्ठपायं । खगिददेविंदमुरिणदधेयं, णमामि चंदप्पहणामधेयं । भरणामि तस्सेव पुणो पुराणं, गणेसगीयं पवरं पुरा एं। पत्ता- अमलइ अत्थरसालइ वयणणवुप्पलमालइ। अट्ठमु जिणवरु पुज्जमि पउरु पुण्णु आवज्जमि ॥ ..
-महाकवि पुष्पदन्त
(म० पु०, 45.1)

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