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26 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन का ध्यान नहीं रखना चाहिये। संयत चित्त तथा मौन व्रत धारण करके उपेक्षाभाव से सबका ज्ञान करना चाहिये। केवल भिक्षा के निमित्त ग्राम में जाना चाहिये।
भोजन के निमित्त उसे नारियल या काठ का कोई पात्र रखना चाहिये, वृक्ष की जड़, जीर्ण वस्त्र, निस्सहाय रहना तथा सर्वत्र समान भाव रखना ही उसका परम धर्म माना गया है। यही जीवन्मुक्त का प्रधान लक्षण है। उसे जीवनमरण की कोई अभिलाषा नहीं करनी चाहिये।"
मुनि को भलीभाँति देखकर अपने पाँव जमीन पर रखने चाहिये, ताकि किसी जीव की हिंसा न हो। जल को वस्त्र से छानकर पीना चाहिये। सत्य वचन बोलने चाहिये और शुद्ध अन्तःकरण से आचरण करना चाहिये। किसी के प्रतिवाद को सह लेना चाहिये। इस नश्वर शरीर से किसी से वैर नहीं करना चाहिये।
मुनि को क्रोध, निंदा, दुर्वचन, प्रति क्रोध नहीं करना चाहिये। उसे निरपेक्ष, निरामिष तथा अध्यात्म में रत रहते हुए अपनी आत्मा में ही रमण करना चाहिये। कभी भी ग्रह, योग, नक्षत्र, हस्तरेखा आदि देखने के निमित्त से भिक्षा प्राप्त नहीं करनी चाहिये। न ही तपस्वी, ब्राह्मण, भिक्षुकों से भिक्षा मांगे। उनका भिक्षा पात्र किसी धातु का नहीं होना चाहिये। मनु कहते हैं, कि मुनि का पात्र काठ, मिट्टी या बांस का होना चाहिये। मुनि को दिन में केवल एक ही बार भिक्षा लेनी चाहिये, जिससे विषयासक्ति न बढ़े। जब गृहस्थ के घर में रसोई बनकर तैयार हो चुके और धुआँ न रहे, मूसल का शब्द सुनाई पड़ने लगे, घर के सभी लोग भोजन कर चुकें, तभी मुनि जाकर भिक्षा की याचना करे। यदि भिक्षा प्राप्त न हो तो विषाद न करे और अच्छा भोजन मिलने पर प्रसन्न भी न होवे। भिक्षा केवल जीवन रक्षा के लिए ही लेना उचित है। उसमें आसक्ति नहीं होनी चाहिये। राग बन्ध का कारण है। अपनी प्रबल इन्द्रियों को वश में करने के लिए उसे स्वल्पाहार तथा एकान्तवास करना चाहिये। वही मुनि मोक्ष का अधिकारी होता है, जो इद्रिय-निरोध करके राग-द्वेष का क्षय कर दे तथा अहिंसा का पालन करे।
इस प्रकार मनुस्मृति में जैन मुनियों के आचार का विवेचन मिलता है तथा यत्रतत्र जैन दर्शन के शब्दों का उल्लेख मिलता है, यथा
"सम्यग्दर्शनसंपन्नः कर्मभिर्न निबद्धयते।
दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते॥१० अर्थात् सम्यग्दर्शन संपन्न व्यक्ति कों में कभी नहीं बँधता। जो दर्शन विहीन है, वही कर्म करता हुआ, उसके फल रूप संसार को भोगता है। यहाँ सम्यग्दर्शन शब्द जैन दर्शन के रत्नत्रय रूप मोक्ष मार्ग का प्रथा पद है।
मनु महाराज ने 10वें अध्याय में ब्राह्मणों से पृथक् क्षत्रिय और वैश्य सभी को शूद्र कहा है। यहाँ यह ज्ञातव्य रहे, कि सभी जैन तीर्थंकर क्षत्रिय ही थे और