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जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 25
रामायण में अनेक स्थानों पर 'श्रमण' नामक तपस्वियों का उल्लेख हुआ है। ' यथा - ब्राह्मणा भुंजते नित्यं..... श्रमणाश्चैव भुंजते।'
श्रमणी शबरी नाम।” आर्येण मम मान्धाता व्यसनं घोर मीप्सितम्।
श्रमणेन कृते पापम्... ........................॥" श्रमण शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम वृहदारण्यक उपनिषद् में हुआ।”
रामायण में अनेक स्थानों पर देवायत के साथ-साथ चैत्य शब्द का प्रयोग हुआ है। जैन मन्दिरों के लिए भी अनेक जैन ग्रन्थों में चैत्य शब्द प्रयुक्त हुआ है, अतः चैत्य शब्द जैन मंदिरों की उपस्थिति का प्रतीक कहा जा सकता है यथा -
चैत्य यूपसमावृतान् कोसलान् व्यवर्तक।
भूमिगृहांश्चैत्यगृहान् विचयार महाकपिः॥ अर्थात् लंका में हनुमान ने सीता को चैत्यगृहों में भी खोजा।"
सददर्शा विदूरस्थं चैत्य प्रासाद मूर्जितम्।
मध्ये स्तम्भसहस्रेण स्थितं कैलास पाण्डुरम्॥ अर्थात् रावण की अशोक वाटिका में हनुमान को हजार खंभों वाला एक चैत्य प्रसाद दिखाई पड़ा था, जो गोलाकार, कैलास के समान श्वेत वर्ण वाला और बहुत ऊँचा था।
मनुस्मृति में अनेक स्थानों पर व्रात्य शब्द का उल्लेख मिलता है। यह ब्राह्मण से पृथक् संस्कृति के लोगों के लिए प्रयुक्त हुआ है। मनुस्मृति में आगार धर्म का पालन करने वाले परिवजित मुनियों का विवेचन किया गया है -
“आगारादभिनिष्क्रान्त: पवित्रोपचितो मुनिः।
समुपोढेषु कामेषु निरपेक्षः परिव्रजेत्॥ इसके पश्चात् मोक्ष प्राप्त करने वाले सिद्ध की विशेषता बतायी गई है। 'नमोसिद्धाणं' जैन महामंत्र का दूसरा पद है। ब्राह्मण संस्कृति में कहीं सिद्ध का स्थान नहीं है
“एक एव चरेन्नित्यं सिद्धयर्थमसहायवान्।
सिद्धिमेकस्य संपश्यन्न जहाति न हीयते॥5 अर्थात् एकान्तवासी मनुष्य ही सिद्ध मुक्त होता है, यह ज्ञान करके संन्यासी संग रहित हो मोक्ष सिद्धि के निमित्त एकाकी ही रहे। वह न तो किसी से त्यागा ही जाता है, न किसी को त्यागता है।
आगे मनु कहते हैं, मुनि को अग्नि तथा गृह त्याग देना चाहिये, रोगादि व्याधियों