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जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 23
प्राचीनतम् उपनिषद् साहित्य का रचना काल ई.पू. 600 है।
एनसी. राय चौधरी का मत है, कि विदेह के महाराज जनक याज्ञवल्क्य के समकालीन थे। याज्ञवल्क्य, वृहदारण्यक और छान्दोग्य उपनिषद् के मुख्य पात्र हैं। उनका कालमान ई.पू. सातवीं शताब्दी है। प्रस्तुत ग्रन्थ में पृष्ठ 97 में लिखा है - जैन तीर्थंकर पार्श्व का जन्म ई.पू. 877 और निर्वाणकाल ई.पू. 777 है। इससे भी यही सिद्ध है, कि प्राचीनतम उपनिषद् पार्श्व के पश्चात् के हैं।'
___ डॉ. राधाकृष्णन् के अनुसार प्राचीनतम उपनिषदों का कालमान ई.पू. आठवीं शताब्दी से ईसा की तीसरी शताब्दी तक है।
इससे स्पष्ट है, कि उपनिषद् साहित्य भगवान पार्श्व के पश्चात् निर्मित हुआ है। भगवान पार्श्व ने यज्ञ आदि का अत्यधिक विरोध किया था। आध्यात्मिक साधना पर बल दिया था, जिसका प्रभाव वैदिक ऋषियों पर भी पड़ा और उन्होंने उपनिषदों में यज्ञों का विरोध किया। उन्होंने स्पष्ट कहा - यज्ञ विनाशी और दुर्बल साधन है, जो मूढ़ हैं, वे इनको श्रेय मानते हैं, वे बार-बार जरा और मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं। यथा -
"प्लवा ह्येते अढ़ा यज्ञरूपा अष्टादशोवतमवरंयेषुकर्म। एच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढ़ा जरा मृत्यु ते पुनरेवापियन्ति ॥163
आत्म विद्या के लिए वेदों की असारता और यज्ञों के विरोध में आत्मयज्ञ की स्थापना यह वैदिक तर परम्परा की ही देन है। भृगु ने अपने पिता से कहा -
"त्रयी धर्ममधर्मार्थ किंपाक फल सन्नियम्। नास्ति तात! सुखं किं चिदत्र दुःखशताकुले।
तस्मान् मोक्षाय यतता कथं सेव्या मयात्रयी॥65 अर्थात् हे तात्! सैकड़ों दुःखों से पूर्ण इस कर्मकाण्ड में कुछ भी सुख नहीं है, अतः मोक्ष के लिए प्रयत्न करने वाला मैं त्रयी धर्म का किस प्रकार सेवन कर सकता हूँ।
एम. विटरनिट्ज ने अर्वाचीन उपनिषदों को अवैदिक माना है। लेकिन यह भी सत्य है, कि प्राचीनतम उपनिषद् भी पूर्ण रूप से वैदिक विचारधारा के निकट नहीं हैं, उन पर भगवान अरिष्टनेमि और पार्श्वनाथ की विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव है। इसके अतिरिक्त अनेक स्थलों पर जैन शब्दावली तथा जैन तीर्थंकरों का विवेचन जैन धर्म को उपनिषद् काल से प्राचीन तो सिद्ध कर ही देता है।
जाबालोपनिषद् में निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग हुआ है, जो जैन मुनियों के लिए प्रयुक्त होता है। इसमें लिखा है - “यथा जात-रूपधरो निर्ग्रन्थो निष्परिग्रहस्तत्तद् ब्रह्म मार्गे सम्यक् सम्पन्न: शुद्धमानसः प्राणसंधारणार्थ .................विमुक्तौ भैक्षमाचरन् ..............
लाभालाभयोः समो भूत्वा...... स परमहंसो नाम॥7