________________
जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 21
"अष्टमे मरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रमः।
दर्शयन् वर्त्य धीराणां सर्वाश्रमनस्कृतम्॥ श्रीमद्भागवत के अनुसार भी जैन धर्म-दर्शन का उद्गम श्री ऋषभदेव से हुआ ऐसा स्पष्ट ध्वनित होता है।
पद्मपुराण में भी अनेक स्थानों पर जैन धर्म एवं आचार का विस्तृत विवेचन मिलता है।
"तीर्थंकराश्चतुर्विंशत्त यातैस्तुपुरस्कृताः।
छावाकृतं फणीन्द्रेण ध्यानमार्ग प्रदर्शकम्॥43 पद्मपुराण के प्रथम खण्ड में क्रोष्टुवंश के विस्तार के वर्णन में थोक 119 से 131 तक अर्हत दीक्षा व मोक्ष मार्ग का वर्णन है। 140 से 142 में दिगम्बर मुनियों के आचार का वर्णन है।
भार्गवसुरगुर रूप दिगम्बर द्वारा वैदिक धर्म का विरोध और अर्हत धर्म का प्रतिपादन किया गया है। असुरों को अर्हत धर्म का अनुगामी बताया गया है। आगे एक स्थान पर जैन आचार तथा उसके फल का वर्णन है। क्रोध रहित, दयालु, सत्यशील, शीलवान, शाकाहारी, सन्तोषी, दानी आदि आचारों का उल्लेख है। जैन धर्म की नीति के पालनकर्ता के लिए यहाँ शूद्र शब्द प्रयुक्त किया गया है। पद्मपुराण के भूमि खण्ड में अर्हत धर्म का विवेचन इस प्रकार किया गया है
“अर्हतो देवता निर्ग्रन्थो दृश्यते गुरुः।
दयाचैव परोधर्मस्तत्र मोक्ष: प्रदृश्यते॥46 अर्थात् जिस धर्म में अहँत देवता होता है और निग्रन्थ गुरु दिखाई देता है। इसमें दया करना ही सबसे बड़ा प्रमुख धर्म है और इसी में मोक्ष का दर्शन होता है।
यहाँ जिन धर्म की व्याख्या तथा वैदिक धर्म की निन्दा एक नग्न, मुण्डित सिर वाले व्यक्ति से करायी गयी है, जिसको पातक तथा कपटी कहा गया है। उसने राजा वेणु को जैन बना दिया। उसके लिए पापी जैन पुरुष नाम प्रयुक्त किया गया है।"
“अहं धाता, अहं गोप्ता, अहं वेदार्थ एवच।
अहं धर्मो, महापुण्यो जैन धर्मः सनातनः। 149 अर्थात् मैं ही धाता हूँ, मैं ही गोप्ता हूँ और वेदों का अर्थ भी मैं ही हूँ। मैं महान् पुण्यों वाला धर्म हूँ, जो कि सनातन जैन धर्म है। यहाँ दिगम्बर साधु द्वारा जैन धर्म को सर्वश्रेष्ठ तथा सदैव विद्यमान रहने वाला कहा गया है।
विष्णु पुराण में भी ऋषभदेव का वर्णन है। इसमें ऋषभ की वंश परम्परा का परिचय इस प्रकार मिलता है - "ब्रह्माजी ने अपने से उत्पन्न अपने ही स्वरूप स्वयंभूव को प्रथम मनु बताया। फिर स्वयंभूव मनु से प्रियव्रत और प्रियव्रत से आग्नीध्र आदि दस पुत्र हुए। आग्निध्र से नाभि और नाभि से ऋषभ हुए। आगे