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( ३२ ) कर्ता नहीं है। - आस्तिक-आपका कथन सर्वथा असत्यहै । क्योंकि मेरु प्रतिनियताकारवाला है मगर आदिवाला नहीं है । इस लिये आदिमत् विशेषणकी तरफ खयाल करते तो फोरनही समझ जाते कि व्यभिचार नहीं आता है।
तृतीय अनुमान यह है कि हमारा यह शरीर भोग्य है, ( भोगमें लाने लायक है ) जो चीन भोगमें ली जाती है; उस्का भोक्ता (भोगनेवाला) जरूर होता है। मसलन चांवल भोग्य है, तो उस्के भोगनेवाले मनुष्य वगेरा जरूर होते हैं ।
इसीतरह जब शरीर योग्य है, तो उस्के योगनेवाले मनुष्य __ वगेरा जरुर होते हैं । इसी तरह जब शरीर भोग्य है; तो
इस्का भोगनेवालाभी होना चाहिये । बस इस्का जो भोक्ता है, वोही हमारा माना हुआ आत्मा है । इससेभी जीवकी सिद्धि हो चुकी । वतलाइये ! अब शंका किस वातनी है? ... नास्तिक-आपके दिये हुए हेतु साध्यसे विरुद्ध पदार्थके सिद्ध करनेवाले होनेसे साध्य विरुद्ध हैं। क्योंकि घटादिक पदार्थके रचनेवाले कुलालादिक रुपी और अनित्य है । अतः आत्माभी रुपी और अनित्य सिद्ध हो जायगा; और आपके मतमें आत्माको नित्य और अमूर्त माना है । इसलिये दिये हुए हेतु व मिसालोंसे आपने अपनेही मंतव्यको तोड लिया