Book Title: Jain Nibandh Ratnakar
Author(s): Kasturchand J Gadiya
Publisher: Kasturchand J Gadiya

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Page 324
________________ ( ३०४ ) सरि-( हर्पित होकर ) हे भव्य प्राणियों ! मुझे आनंद इस वख्त इस बातका होता है कि तुम लोग बड़े ही मुर्लभ वोधी हो, देखो, घोड़ेसे ही उपदेशसे किरा योन्यताको प्राप्त हो गये ? ( जरा मुशकरा कर ) क्यो जदत्तजी ! अबभीकुछ शंका है. ? . पज्ञ-कृपानाथ ! सूबके सामने संघरका क्या काम, आए जैसे गोन्य पुरुष मिले फिर शंकाकी जुरुरत ही क्या है. अब तो छपाकर सुगुरुका वरूप जल्दी ही सुना देये. सूरि-अच्छा तो अब एक चित्त होकर स्नोमै कहताहुं. सुगुरु ये हैं जिनोने गृहस्थावतको त्यागन करके पंच महाबत अंगीकार किये हैं, सर्वढा माथुफरी, तथा ४२ दोष रहित आहारले लेनेवाले हैं. सदा अमतिबंध विहार करते हैं. कोईभी तराहके पंचमें वे दखल नहीं देते. ज्ञानाभ्यास करके परोपकारके हेतु भव्यजनोको प्रतिवोध देते हैं, इस मुगुरु शब्दमें आचार्य, उपाध्याय और साधु तीनका ससावेश होता है. इनके क्रमले ३६-२५-और २७ गुण होते हैं। सो ग्रंथांतरसे जान लेना, आचार्य महाराज गच्छके यंभ भृत तथा पंचाचारके पूर्ण मालिक होते हैं. उपाध्याय महा राज अंगोपांगके पाठक होते हैं. तथा पवित्र साधु साधि अपना संयम निष्कलंक पालन करनेमें तत्पर रहते हैं, उनकों उनके पांचो महानतोका बड़ा भारी ख्याल रहता है.

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