Book Title: Jain Nibandh Ratnakar
Author(s): Kasturchand J Gadiya
Publisher: Kasturchand J Gadiya

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Page 327
________________ (३०७) चयान करता, मगर वरुत थोडा है और वयान बहुत है सबब कभी ज्ञानी गुरुका साथ मिले तो श्री उत्तराभ्ययन मूनके २४ वे अभ्ययनमेंसे मुनलेना हे महानुभागों तुम उन्हीको साधु साचि मानना कि जो फेरल स्त्र परोपकार करनेमें तत्पर हो, प्रपची, वेश धारियोंकों कभी साधु मत मानना क्यों साहब समझे न ' शिष्यवर्ग-हे कृपानिधे । आपने जो देव और गुरुका स्वरूप फरमाया सो रसुवी समझमें आ गया अब कृपाकर धर्मका स्वरूप समझाईयेगा सूरि-ई महानुभागे जिसमे अहिंसा परमो धर्म मुख्यता करके रहा हुरा हो उसीका नाम सचा धर्म है कई मता. बलबी हिंसा परमो धर्मके उद्गार तो जोर • से निकालते है मगर वास्तविक म देखा जाये तो जैसे जैनने उस सूत्रकी मुरयता मान रक्सो है वैसी ही अन्य धर्म वालोने उसकी गौणगरी है हे श्रोतागणों । तुम सुद जानते हो कि अपने अन्दर दयाका वर्णन कितनी मूक्ष्म तौरसे किया गया है ' म इस वख्त तुमको केरल मान सक्षेपसे दयारा वर्णन करता हु. अपने शास्त्रोमें दयाफे ४ भेद किये है. ? स्वदया २ परदया ३ द्रव्यदया ८ और भावदया.

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