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( २२०) मात्मा! यह आपसे विमुख रहता है. वाचकटंद ! इस लिये मनको ठग कहा जाय तो क्या हर्ज है ? मगर प्रत्यक्षमे ठग मालुम नहीं होता और साहुकार भी मालूम नहीं होता; क्योंकि गुप्त रीतिसे पांचों इद्रीयमें मिल रहा है और इंद्रीयें अपना अपना विषय भोगती हैं तो यह वोचमेही प्रपंचजाल रचदेता है और सबके शामिल व सबसे अलग दोनो वातामें मुस्तेज यही एक आश्चर्य तुल्य है. ___ आनदयनजी महाराज कहते हैं कि हे विभो ! में जब इसे हितशिक्षा कहता हूं तो हृदय तटपर स्थिरही नहीं होनेदेता और स्वछंदाचर्णमें मग्न होकर आर्त रौद्र ध्यान में प्रवृत्त रहेता है वास्ते हे भगवान ! में इस मनको कैसे समझाउं? ! ___वाचकटूंद ? महात्माका फरमान सत्य है क्योंकि देवता जो सर्व शक्तिमान हैं-वहभी सर्व कार्यम समर्थ है. मनुष्य ऐसे होते हैं कि जिनसे सिंह अष्टापद जैसे जानवरोकोभी भय पैदा होता है. और पंडित जो वादविवाद करनेमें समर्थ है ऐसे मनुष्यसेभी वश होना दुप्वार है मगर अभ्याससे सब सहल होसक्ता. यह न्यायशास्त्रका वचन याद करके अभ्यास को मत छोडो, कहा है कि.
अभ्यासेन क्रिया सर्वा । अभ्यासात्सकला कला॥