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( २३५) अब आपको सक्षिप्त जैन शब्दकी व्युत्पत्ति और उसकी व्यारया वतलाइजाती है
'आनदगिरिकृत । 'शारविजय ' में जैन शब्दकी व्युत्पत्ति इस प्रकार वताई है “ जीति पद वाच्यस्य नेति पदेन पुनर्भव तस्याजन्म शुन्य जैनः" अर्थात् मुक्तात्माका पुन र्जन्म नहीं होता, जैन शास्त्रोंमें ऐसी व्युत्पत्ति की गई है कि "राग द्वेपादि दोपान् वा कर्म शत्रुञ्जयतीति जिनः तस्यानुया यिनो जैन. " अर्थात् जिन्होंने काम क्रोधादि अठारह दोपोंको अया ज्ञानापणीय, दर्शनावर्णीय, मोहनीय, अन्तराय आदि कर्म गनुओरों जाते वे 'जिन' और उनके उपासक 'जेन' कहलाते हैं, यानि जो राग हेप क्रोध मान माया लोभ काम अज्ञान रति अरति गोर हास्य जुगुप्ता अर्थात् विणा मिथ्यात्व ( अष्टादश दूपण) ईत्यादि भावशत्रुआगो जीतते हैं उनको " जिन" कहते हैं, यह 'मन' शइका अर्थ है (ऐसे जिन इस उत्स पिणी कामे हुवे है जिनकी तीर्य पानसें तीर्थकर कहते हैं, ऐसे पुर्वोक्त 'जिन' की जो शिक्षा अर्थात् उत्सर्गा पाद सप्नभगी चार निक्षेप पट इन्य नश्तर नित्यानित्य आदि अने नयात्मक स्याद्वारा प मार्ग द्वारा हितकी मानि अहितका परिहार-अगितार और त्याग करना तिसका नाम 'निन गासन' हे और "निन शासन " कि आशानुसार