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( २९४) वि.-हे दीनानाथ ! में ब्राह्मण हुँ, इसी शहरमेंसे आया हुं और मेरा नाम यज्ञदत्त है.
सूरि-अच्छा यज्ञदत्तजी ! जरा स्वस्थ चित्त करके मुनो तथा जहां २ तुम्हें शंकाएं पैदा हो जुरूर पूंछना. ( अपनी मंडलीकी तर्फ देखकर ) हे साधुओ तथा साविओं ! अब तुमभी एक चित्त होकर सुनना तथा जो २ संशय पैदा हो वरावर पूंछते जाना.
सर्व-बहुत अच्छा साहब, अव कृपाकर फरमावें.
मरि-हे श्रोतागणो ! देव गुरु और धर्म इनका स्वरूप __यद्यपि बहुत बड़ा है तदपि मैं अपनी तुच्छ बुध्यानुसार
कहता हुं सो श्रवण करना. __हमारे जैन शास्त्रों में देव दो प्रकारके माने हैं, एक साकार दूसरे निराकार. दोनो ही देव अठारह दूषण करके रहित, अनंत ज्ञान दर्शन तथा चारित्रमयी होते हैं. ___ यज्ञदत्त-हे कृपानाथ! उन अठारह दूपणों के नाम कृपाकरके फरमावे ?
सूरि-१ अज्ञान, २ मिथ्यात्व, ३ अविरति ४ राग, ५ द्वेष, ६ काम ७ हास्य, ८ रति, ९ अरति, १० भय, ११ शोक, १२ दुर्गच्छा, १३ निद्रा १४ दानांतराय, १५ लाभांतराय, १६ भोगांतराय, १७ उपभोगांतराय, १८ वीर्यातराय.