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( २५० ) आगे खुल्यो अरुपीछे कटयो जिमि कोटकी शोभा कमीज बड़ाई, सुंदर टोपी घड़ी छड़ी गही वरननमें पतलून चडाई । गढेही मूतत हैं भुमि सुचुरट्ट धुवां फुकफुक उडाई, भारतके जन उन्नती कारण प्रातही बूटकी कर्त सफाई १ __ क्या वे ऐसी दशामें अपना धर्म रूपी पुरुषार्थ साध सकेंगे! चाहे वे खूब इंग्लिश पढकर वीए० एम ए० वेरिष्टर, डा. क्तर-प्रोफेसर-मेनेजर कुछवी बनकर हजार दो हजार रुपै माहावारी कमाकर ऐश करें; परंतु वे धर्मके संस्कार विना सर्व निरर्थक हैं-धर्मके ज्ञान विना परोपकार वृत्ति क्षमा शांतता, सहनशीलतादिक गुण प्राप्त नहीं होते हैं-और इनके विना मनुष्य जन्मकी सार्थकताभी होनी अति कटिन है. इस लिये धर्मदाताकी सेवा निरंतर वनती रहै ऐसी शिक्षा भी हमें ग्रहण करनेका प्रयत्न करना चाहिये. व्यवहारिक शिक्षा तो केवल एक भवकी सुखदायी है और धार्मिकशिक्षा भवो भवमें सुखदायी है-धर्मसे ही सर्व मुख, संपत्ति, बुद्धी वल, आरोग्यता, लक्ष्मी, कुटुंब मिलता है. इससे विमुख रहना कृतघ्नी पुरुपोंका काम है कहा है:धर्मेणाधिगतैश्वर्यो धर्म मेव निहतियः